होली अपने साथ रंग -प्रेम -उत्सव तो लाती हीं है साथ हीं गृहस्थों के लिए ढेरों काम भी लाती है ।ऐसे में एक नव विवाहित जोड़ा कैसे अपने प्रेम को लोकगीतों के माध्यम से दर्शाता है ,कैसे उसी घर की विवाहित बेटी अपने पिया का इंतज़ार कर रही है की गवना नही कराया कोई बात नही लेकिन होली में तो मिलने आ जातें ।
सरसों की पिटाई हो रही है ।चार दिन की बहूरिया अपने मेहंदी लगे हाथों से सरसों को पीट रही है ।ऐसे में उसके दूल्हे की नज़र उसपर पड़ती है ।अपनी दुल्हन की हालत देख वो कहता है -
“पानवा नियर गोरी आतर पातर
“फूलवा नियर सुकूमार होऽऽऽ गोरी हो आतर -पातर ......
इतना सुनते ही दुल्हन का मुँह शरम से लाल हो जाता है ।अँचरा से मुँह ढाँक कर कनखी से अपनी ननद की तरफ़ देखती है कि कहीं वो तो नही सुन रही ये सब ।ननद रानी इन सब को देख कर अनदेखा करती हुई सरसों को मसल रहीं है ।सोच रही है कि एक मेरा मरद है जिसे मेरी चिंता हीं नही ।ऐसे में भाभी पूछती है ,बबूनी काहे मुँह सूखईले बानी ,सब ठीक बा नू ?
ननद रानी भरे आँख रुँधे गले से कहती है भौजी तुमसे क्या छिपाना
“पिया छोड़ी गईले परदेसवा रे सखियाँ
आइल फागुन के महिनवा रे सखियाँ .....”
भौजी ,ननद को समझाती है कि चिंता मत करीं बबी ।भोले बाबा पर बीसबास रखी ,पाहुन होली में ज़रूर आएम ।भौजी की बात से ननदो को बल मिलता है और दोंनो ननद भौजाई सरसों को पसार घर के काम में लग जातीं है ।शाम को भोजन की तैयारी में लगी भौजी तरकारी के लिए हरदी पीसने बैठी ,हरदी ऐसा पुरान की जल्दी कुचाए ना ।झनक कर बर्तन धो रही अपनी ननद से पूछती है ये बबी -
“कहवा के हाऊवे सील-सीलवटीया
कहवा के हरदी पुरान हो ऽऽऽ
ननद रानी हँस कर कहती हैं
,राउरा नाईहर के हाऊवे सील -सिलवातिया ,ससुरा के हरदी पुरान हो ऽऽऽऽ
आंगना में पिसेलू हरदीया ....
इधर दिन भर की सरसों पिटाई और पूरवा हवा के ज़ोर से बेचारी सुकुमार कनिया को सर्दी -ज़ुकाम हो जाता है ।नाक झाड़ -झाड़ के लाल ।ऐसे में उसके दूल्हे को देखा नही जाता ।कहता है कि “सुनअ ना नकबेसर खोल के रख द ना तक नाक छिला जाई।कनिया को भी बात सही लगती है ।उ भी ई नकबेसर से परेशान है ।निकाल कर रख देती है अँगना में जहाँ महावीर जी का स्थान है ।अपने दूल्हा से कहती है तनी देखत रहेम हम आँगनवा लीप ली ।इधर दूल्हा राजा कई दिन के खेत खरिहान से थके खटिया पर पड़े हम्म तो कह देते है पर इसी बीच इनको आँख लग जाती है ।
सुबह -सेबर के बेरा में कउवा सब का मौज होता है ।ऐसे में एक कउवा भोजन की तलास में अँगना में मँडरा रहा था ।नकबेसर को ही अपना भोग समझ कर ले भागा।
कनिया कौवा को नकबेसर ले जाते देखती है तो छाती फाड कर चिल्लाने लगती है -
“नकबेसर कागा ले भागा मोरा साइयाँ अनाड़ी ना जागा “
सैंया राम जब अपनी दुल्हनिया का विलाप सुनते है तो कहते हैं मत रोअ हमार करेजा ।हमारा से ग़लती हो गईल हम तोहरा ला “लाली चुनरी ले आएम “कनिया पूछती है कहवा के लाली चुनरी ? साइयाँ जबाब देते है
“हाजीपुर के लाली हो चुनरिया ,पटना के रंगरेज सजनी लाली चुनरी .....”
इधर भोले बाबा और रेल बाबा की किरपा से ननदो के पाहुन अपने ससुरा में रंग खेलने पहली बार आ रहें है ।सूट -बूट के साथ अटैची लिए जब गाँव में प्रवेश करतें है तो देखते है -
“फाग खेलत सारा गाँव रे रसिया फागुन आया ....”
गाँव का लाईका सब पाहुन को रास्ते में पकड़ कर रंगने लगता है ।इधर एक छोट लाइका दौड़ कर घर पहुँचता है बताने को कि जीजा जी आ रहें है ।ननद रानी भोली बाबा को बार -बार गोड़ लाग रहीं है ,बार -बार खिड़की ,दुआर तक जा रहीं है कि कहाँ रह गए पिया मोरे ।एक लाईका को भेजतीं है पता लगाने को वो आकर कहता है
“यमुना तट श्याम खेलत होरी यमुना तट ...”
अब ननद से सबर नही होता है अबीर रंग की थाल लेकर वो निकल पड़ती है अपने श्याम राम को रंगने ।
“उत से निकली नवल जानकी लेकर हाथ अबीर ,होरी खेलत रघुबीर ......”
इधर नई कनिया होली के रंगो से सराबोर अपने दूल्हे को प्रेम पूर्ण ताना देती है कि
“ऐसी होरी ना खेलो कन्हाई रे ऐसी होरी
तन मन रंग सब श्याम तुम जानत ,जाओ -जाओ बनवारी रे .....”
इसी बीच ननद रानी भूत बनी अपनी पति के साथ घर पहुँचती है ।भाभी उनका स्वागत रंगो से करती है ।दोनो जीजा -साला और उनके दोस्त मिलकर ऐसी होली खेलते हैं कि उन्हें देख दोनो विवाहिता गा उठती है
खेले मसान में होरी दिगम्बर
सरसों की पिटाई हो रही है ।चार दिन की बहूरिया अपने मेहंदी लगे हाथों से सरसों को पीट रही है ।ऐसे में उसके दूल्हे की नज़र उसपर पड़ती है ।अपनी दुल्हन की हालत देख वो कहता है -
“पानवा नियर गोरी आतर पातर
“फूलवा नियर सुकूमार होऽऽऽ गोरी हो आतर -पातर ......
इतना सुनते ही दुल्हन का मुँह शरम से लाल हो जाता है ।अँचरा से मुँह ढाँक कर कनखी से अपनी ननद की तरफ़ देखती है कि कहीं वो तो नही सुन रही ये सब ।ननद रानी इन सब को देख कर अनदेखा करती हुई सरसों को मसल रहीं है ।सोच रही है कि एक मेरा मरद है जिसे मेरी चिंता हीं नही ।ऐसे में भाभी पूछती है ,बबूनी काहे मुँह सूखईले बानी ,सब ठीक बा नू ?
ननद रानी भरे आँख रुँधे गले से कहती है भौजी तुमसे क्या छिपाना
“पिया छोड़ी गईले परदेसवा रे सखियाँ
आइल फागुन के महिनवा रे सखियाँ .....”
भौजी ,ननद को समझाती है कि चिंता मत करीं बबी ।भोले बाबा पर बीसबास रखी ,पाहुन होली में ज़रूर आएम ।भौजी की बात से ननदो को बल मिलता है और दोंनो ननद भौजाई सरसों को पसार घर के काम में लग जातीं है ।शाम को भोजन की तैयारी में लगी भौजी तरकारी के लिए हरदी पीसने बैठी ,हरदी ऐसा पुरान की जल्दी कुचाए ना ।झनक कर बर्तन धो रही अपनी ननद से पूछती है ये बबी -
“कहवा के हाऊवे सील-सीलवटीया
कहवा के हरदी पुरान हो ऽऽऽ
ननद रानी हँस कर कहती हैं
,राउरा नाईहर के हाऊवे सील -सिलवातिया ,ससुरा के हरदी पुरान हो ऽऽऽऽ
आंगना में पिसेलू हरदीया ....
इधर दिन भर की सरसों पिटाई और पूरवा हवा के ज़ोर से बेचारी सुकुमार कनिया को सर्दी -ज़ुकाम हो जाता है ।नाक झाड़ -झाड़ के लाल ।ऐसे में उसके दूल्हे को देखा नही जाता ।कहता है कि “सुनअ ना नकबेसर खोल के रख द ना तक नाक छिला जाई।कनिया को भी बात सही लगती है ।उ भी ई नकबेसर से परेशान है ।निकाल कर रख देती है अँगना में जहाँ महावीर जी का स्थान है ।अपने दूल्हा से कहती है तनी देखत रहेम हम आँगनवा लीप ली ।इधर दूल्हा राजा कई दिन के खेत खरिहान से थके खटिया पर पड़े हम्म तो कह देते है पर इसी बीच इनको आँख लग जाती है ।
सुबह -सेबर के बेरा में कउवा सब का मौज होता है ।ऐसे में एक कउवा भोजन की तलास में अँगना में मँडरा रहा था ।नकबेसर को ही अपना भोग समझ कर ले भागा।
कनिया कौवा को नकबेसर ले जाते देखती है तो छाती फाड कर चिल्लाने लगती है -
“नकबेसर कागा ले भागा मोरा साइयाँ अनाड़ी ना जागा “
सैंया राम जब अपनी दुल्हनिया का विलाप सुनते है तो कहते हैं मत रोअ हमार करेजा ।हमारा से ग़लती हो गईल हम तोहरा ला “लाली चुनरी ले आएम “कनिया पूछती है कहवा के लाली चुनरी ? साइयाँ जबाब देते है
“हाजीपुर के लाली हो चुनरिया ,पटना के रंगरेज सजनी लाली चुनरी .....”
इधर भोले बाबा और रेल बाबा की किरपा से ननदो के पाहुन अपने ससुरा में रंग खेलने पहली बार आ रहें है ।सूट -बूट के साथ अटैची लिए जब गाँव में प्रवेश करतें है तो देखते है -
“फाग खेलत सारा गाँव रे रसिया फागुन आया ....”
गाँव का लाईका सब पाहुन को रास्ते में पकड़ कर रंगने लगता है ।इधर एक छोट लाइका दौड़ कर घर पहुँचता है बताने को कि जीजा जी आ रहें है ।ननद रानी भोली बाबा को बार -बार गोड़ लाग रहीं है ,बार -बार खिड़की ,दुआर तक जा रहीं है कि कहाँ रह गए पिया मोरे ।एक लाईका को भेजतीं है पता लगाने को वो आकर कहता है
“यमुना तट श्याम खेलत होरी यमुना तट ...”
अब ननद से सबर नही होता है अबीर रंग की थाल लेकर वो निकल पड़ती है अपने श्याम राम को रंगने ।
“उत से निकली नवल जानकी लेकर हाथ अबीर ,होरी खेलत रघुबीर ......”
इधर नई कनिया होली के रंगो से सराबोर अपने दूल्हे को प्रेम पूर्ण ताना देती है कि
“ऐसी होरी ना खेलो कन्हाई रे ऐसी होरी
तन मन रंग सब श्याम तुम जानत ,जाओ -जाओ बनवारी रे .....”
इसी बीच ननद रानी भूत बनी अपनी पति के साथ घर पहुँचती है ।भाभी उनका स्वागत रंगो से करती है ।दोनो जीजा -साला और उनके दोस्त मिलकर ऐसी होली खेलते हैं कि उन्हें देख दोनो विवाहिता गा उठती है
खेले मसान में होरी दिगम्बर
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