आज मेरे लेटर बॉक्स में दो बड़े लिफ़ाफ़े मिले ।भूरे रंग की इन लिफ़ाफ़ों के अंदर क्या था ,ये जानने की बड़ी जल्दीबाज़ी थी मुझे ।बार -बार शतेश से पूछ रही थी कि ,आपने तो कुछ ऑर्डर नही किया ? ना में जबाब पा कर उत्सुकता और बढ़ती जा रही थी ।घर पहुँचने तक रहा नही गया मुझसे और घर की सीढ़ियों तक पहुँचते -पहुँचते एक लिफ़ाफ़े को जैसे तैसे खोल लिया ।भूरी काग़ज़ अंदर से प्लास्टिक की बबल से चिपकी हुई थीं ।इन मासूम बबल्स के बीच एक गुलाबी फूलों वाली किताब दिखी ।
किताब के गुलाबी फूल मेरे चेहरे पर खिल हीं रहीं थीं कि ,मैं घर के अंदर आ चुकी थी ।दूसरे लिफ़ाफ़े को चाक़ू की मदद से खोला तो ,इनमे से तिलतियाँ उड़ कर मेरे चेहरे के गुलाबी फूलों को चूमने लगी ।इन सब के बीच ,किताब के लेखक का नाम देखते हीं मैं समझ गई की ये किसने भेजा है ।लेखक है “ओशो “ और भेजने वाली है मेरी “मौसी “ ।
मेरी रश्मि मौसी ।
आपको बताऊँ ओशो के किताबी दुनिया से मेरा परिचय इन्होंने हीं कराया था ।पहले मैं सिर्फ़ ओशो का नाम और उतना हीं नाम -काम जानती थी जितना न्यूज़ वैगरा में सुना था ।पुणे आने के बाद घूमने की जगह में ओशो आश्रम का भी नाम था पर वहाँ जाने की पाबंदियाँ इतनी सुनी थी की सोचा नही कभी जाने को ।तब ओशो में इतनी रुचि भी नही थी ।साथ ही मेरी प्रिय सखी प्रशंसा की कोई जाननेवाली वहाँ काम करती थीं तो ,उसने बहुत कुछ सुन रखा था आश्रम के बारे में ।उत्सुकता तो कभी -कभी हमें होती थी पर हमारे ठिकाने से दूर होने के कारण भी नही जा पाते ।
एक रविवार यूँ ही मैं कोमल और प्रशंसा निकल पड़े कोरेगाँव पार्क ।पहुँचे देर हो गई जर्मनबेकरी में पेट पूजा की और फिर वहीं रोड साइड दुकान से चपल ,कुर्ते लेने लगे ।यहाँ जुट की बनी चपले ख़ूब सुंदर -सुंदर मिलती थी ।इन्हें ओशो चपल हीं कहते थे ।अब कौन जाता है आश्रम ,खाना ,शोपिंग और फिर वापस ठिकाने पर ।
बाद में मैं जब रश्मि मौसी से मिली तो उनके पास ओशो की मैगज़ीन देखी ।मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ ।मौसी और ये किताबें ।सच मानिए मैंने पहले ऐसा हीं सुना था कि ओशो सेक्स से जुड़ी बातें या किताबें हीं लिखते है या बताते है ।तब सेक्स पाप या कोई गन्दी चीज़ लगती थी ।मौसी ने कहा ले जाओ पढ़ो अच्छी किताबें हैं ,पर वापस कर जाना ।इस तरह मैं ओशो को दूसरी तरह से जान पाई ।
मौसी की दी मैगज़ीन के अलावा मैंने कभी ओशो को ख़ुद ख़रीद कर नही पढ़ा ।आज फिर मौसी के द्वारा हीं ओशो मेरे आगे आए ।अब मेरी छोटी सी लाईब्रेरी में ओशो भी विराजमान है ।इसके लिए थैंक यू मौसी ।
पर थैंक यू क्यों ये तो आपका कर्तव्य है कि आप मुझे सही जानकारी ,अच्छी चीज़ें बताती रहे और मैं आपसे लेती रहूँ ।
बहुत बहुत बहुत प्यार आपको इसके लिए ।
किताब के गुलाबी फूल मेरे चेहरे पर खिल हीं रहीं थीं कि ,मैं घर के अंदर आ चुकी थी ।दूसरे लिफ़ाफ़े को चाक़ू की मदद से खोला तो ,इनमे से तिलतियाँ उड़ कर मेरे चेहरे के गुलाबी फूलों को चूमने लगी ।इन सब के बीच ,किताब के लेखक का नाम देखते हीं मैं समझ गई की ये किसने भेजा है ।लेखक है “ओशो “ और भेजने वाली है मेरी “मौसी “ ।
मेरी रश्मि मौसी ।
आपको बताऊँ ओशो के किताबी दुनिया से मेरा परिचय इन्होंने हीं कराया था ।पहले मैं सिर्फ़ ओशो का नाम और उतना हीं नाम -काम जानती थी जितना न्यूज़ वैगरा में सुना था ।पुणे आने के बाद घूमने की जगह में ओशो आश्रम का भी नाम था पर वहाँ जाने की पाबंदियाँ इतनी सुनी थी की सोचा नही कभी जाने को ।तब ओशो में इतनी रुचि भी नही थी ।साथ ही मेरी प्रिय सखी प्रशंसा की कोई जाननेवाली वहाँ काम करती थीं तो ,उसने बहुत कुछ सुन रखा था आश्रम के बारे में ।उत्सुकता तो कभी -कभी हमें होती थी पर हमारे ठिकाने से दूर होने के कारण भी नही जा पाते ।
एक रविवार यूँ ही मैं कोमल और प्रशंसा निकल पड़े कोरेगाँव पार्क ।पहुँचे देर हो गई जर्मनबेकरी में पेट पूजा की और फिर वहीं रोड साइड दुकान से चपल ,कुर्ते लेने लगे ।यहाँ जुट की बनी चपले ख़ूब सुंदर -सुंदर मिलती थी ।इन्हें ओशो चपल हीं कहते थे ।अब कौन जाता है आश्रम ,खाना ,शोपिंग और फिर वापस ठिकाने पर ।
बाद में मैं जब रश्मि मौसी से मिली तो उनके पास ओशो की मैगज़ीन देखी ।मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ ।मौसी और ये किताबें ।सच मानिए मैंने पहले ऐसा हीं सुना था कि ओशो सेक्स से जुड़ी बातें या किताबें हीं लिखते है या बताते है ।तब सेक्स पाप या कोई गन्दी चीज़ लगती थी ।मौसी ने कहा ले जाओ पढ़ो अच्छी किताबें हैं ,पर वापस कर जाना ।इस तरह मैं ओशो को दूसरी तरह से जान पाई ।
मौसी की दी मैगज़ीन के अलावा मैंने कभी ओशो को ख़ुद ख़रीद कर नही पढ़ा ।आज फिर मौसी के द्वारा हीं ओशो मेरे आगे आए ।अब मेरी छोटी सी लाईब्रेरी में ओशो भी विराजमान है ।इसके लिए थैंक यू मौसी ।
पर थैंक यू क्यों ये तो आपका कर्तव्य है कि आप मुझे सही जानकारी ,अच्छी चीज़ें बताती रहे और मैं आपसे लेती रहूँ ।
बहुत बहुत बहुत प्यार आपको इसके लिए ।
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