कई बार आप कुछ सोचतें हैं और अगर वो हो जाता है तो इसके पीछे आपकी पुरी शक्ति लगी होती है। आपकी मानसिक और शारीरिक दोनो हीं शक्तियाँ इसके पीछे दिलों जान से लगी होती है पर मेरे साथ तो कुछ अलग हीं मामला हुआ।
पर मैं इसे चमत्कार बिलकुल नही मानती। ये मेरा एक तरह से विश्वास हो सकता है, आज के समय कि राजनीति का, इससे जुड़े कार्यों का।
हुआ यूँ कि मेरी किताब “मनलहरी” का परिवेश मैंने अपने गाँव रहा।किताब की अधिकांश राहें मेरे गाँव -घर को जातीं हैं। मेरे गाँव के आगे बहती “मसान” और पीछे हमसब की दुनियाँ। ऐसे में इस पहाड़ी नदी पर पुल बड़े प्रार्थनाओं बाद बना और, “संयोग देखें उस पुल की हालत क़रीब वहीं हुई जो मेरा नायक सोच रहा था”
पढ़े किताब का एक पन्ना,
मेरे दिमाग़ में फिर से चींटियाँ रेंगने लगी। कुछ जलन सी हुई, शायद वो फिर से ख़ून पी रही हैं। अपना माथा झटक कर मैंने कहा, “जानता तो हूँ देखा भी है।”
कान्हा, आँखें निकाल कर पूछता है ,”देखा है, कहाँ ?”
मैंने कहा -छोड़ ना। तू क्या बता रहा था पूजा का, लक्षिमिनिया का ?
कान्हा मेरी तरफ़ देखकर आँख मारता है। मुझे धक्का देते हुए कहता है ,”लगता है आज भाई के दिमाग़ में “मछरी-भात चढ़ गया है।”
मैं धीमे से कहता हूँ ,ना भाई। हम सब सुन रहें हैं ,” ध्यान बस मसान में है।”
मसान में ?
हाँ।
तो यही बता दे, क्या सोच रहे हो मसान के बारे में? इसमें ऐसा क्या है सोचने वाली बात?
मसान की तरफ़ देखते हुए मैंने कहा,”यही कि, मान लो ये पूल अभी टूट जाए तो? क्या हम डूब जाएँगे या पार लग जाएँगे ?”
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