आज शाम की चाय जयदेव के साथ रही। जयदेव कौन ? मेरे कोई मित्र ?
हम्म, कह सकतें हैं “काल्पनिक मित्र” जिनकी बनाई धुने मुझमें मित्रता ,प्रेम,उमंग सब भर जातीं हैं।
बात कर रही हूँ संगीतकार “जयदेव वर्मा” की। एक ऐसे संगीतकार जिन्होंने कई नए लोगों के साथ मिलकर बेहद ख़ूबसूरत गाने दिए। आज बात करती हूँ “त्रिकोण का चौथा कोण “फ़िल्म की।
फ़िल्म का नाम भले हीं अलगे लगे पर कहानी वहीं पुरानी है। हाँ उस समय को देखते हुए इस फ़िल्म का अंत थोड़ा अलग ज़रूर है।
कहानी कुछ यूँ है-
फ़िल्म का नायक अपनी अपनी गृहस्ती में ख़ुश है फिर भी कभी -कभी उसे अपनी प्रेमिका की याद आने लगती है। कहानी फलैस बैक में चल रही होती है। नायक नायिका को पहली बार एक म्यूज़िम में देखता है और पहली नज़र का प्यार हो जाता है। इधर नायक की माँ ने उसकी शादी अपने जानपहचान की लड़की से करने की सोच रखी है। नायक मना कर देता है कि, उसे किसी और से प्रेम है। इधर नायिका जो कुछ दिन दिनो के लिए अफ़्रीका से भारत आई होती है, उसे अचानक अफ़्रीका जाना पड़ता है। जिस होटेल में रुकी होती है वहाँ के वेटर को एक ख़त अपने पते के साथ नायक के लिए छोड़ जाती है, पर नायक को वो ख़त नही मिलता। नायक माँ की पसंद की लड़की से शादी कर लेता है और उनकी एक बेटी भी होती है। ऐसे में फिर से प्रेमिका की एंट्री होती है। दोनो मिलने लगते है और फिर वहीं क्या करें क्या ना करे वाली हालत। इधर नायक की पत्नी को दिल की बीमारी है। उसे जब नायक की प्रेमिका के बारे में मालूम होता है वो नायक से अपनी बीमारी छुपाती है। उसे लगता है कि ,बेचारा नायक उसकी वजह से फँसा है। नायक को जब ये बात मालूम है वो उसे डॉक्टर के पास ले जाता है। पत्नी प्रेमिका पर घर सौंप कर ऑपरेशन को जाती है। उसे लगता है वो बच नही पाएगी पर वो बच जाती है। इधर प्रेमिका अपने घर की तरह उसका घर और बेटी को सम्भाले रखती है। ऐसे में जब नायक की पत्नी घर आती है तो प्रेमिका घर से जाने को तैयार है। तब पत्नी प्रेमिका को ये कह कर रोकती है कि ये घर अब उसका भी है। दोनो क्या साथ नही रह सकतीं। और इस तरह फ़िल्म पूरी होती है ।
नायक -दिल धड़कने की आवाज़ थी ख़ामोशी के सिवा कोई भी तो नही दिल धड़कने की आवाज़ थी .. ...
नायिका -बेसब हमको फिर तीसरे का गुमा कैसे और क्यों हुआ ?
नायक :-कोई भी तो नही,दिल धड़कने की .....
तेरी ज़ुल्फ़ों में भीगीं हुई मेरी ये उँगलियाँ ढूँढती हैं तुम्हें ,छू रहीं हैं तुम्हें
आ ना जाए कहीं आज पैरों तले अपनी परछाइयाँ धीरे -धीरे चलो,मुँह से कुछ ना कहो
जो भी कहना है आँखो से आँखे कहे .... ....
हम्म, कह सकतें हैं “काल्पनिक मित्र” जिनकी बनाई धुने मुझमें मित्रता ,प्रेम,उमंग सब भर जातीं हैं।
बात कर रही हूँ संगीतकार “जयदेव वर्मा” की। एक ऐसे संगीतकार जिन्होंने कई नए लोगों के साथ मिलकर बेहद ख़ूबसूरत गाने दिए। आज बात करती हूँ “त्रिकोण का चौथा कोण “फ़िल्म की।
फ़िल्म का नाम भले हीं अलगे लगे पर कहानी वहीं पुरानी है। हाँ उस समय को देखते हुए इस फ़िल्म का अंत थोड़ा अलग ज़रूर है।
कहानी कुछ यूँ है-
फ़िल्म का नायक अपनी अपनी गृहस्ती में ख़ुश है फिर भी कभी -कभी उसे अपनी प्रेमिका की याद आने लगती है। कहानी फलैस बैक में चल रही होती है। नायक नायिका को पहली बार एक म्यूज़िम में देखता है और पहली नज़र का प्यार हो जाता है। इधर नायक की माँ ने उसकी शादी अपने जानपहचान की लड़की से करने की सोच रखी है। नायक मना कर देता है कि, उसे किसी और से प्रेम है। इधर नायिका जो कुछ दिन दिनो के लिए अफ़्रीका से भारत आई होती है, उसे अचानक अफ़्रीका जाना पड़ता है। जिस होटेल में रुकी होती है वहाँ के वेटर को एक ख़त अपने पते के साथ नायक के लिए छोड़ जाती है, पर नायक को वो ख़त नही मिलता। नायक माँ की पसंद की लड़की से शादी कर लेता है और उनकी एक बेटी भी होती है। ऐसे में फिर से प्रेमिका की एंट्री होती है। दोनो मिलने लगते है और फिर वहीं क्या करें क्या ना करे वाली हालत। इधर नायक की पत्नी को दिल की बीमारी है। उसे जब नायक की प्रेमिका के बारे में मालूम होता है वो नायक से अपनी बीमारी छुपाती है। उसे लगता है कि ,बेचारा नायक उसकी वजह से फँसा है। नायक को जब ये बात मालूम है वो उसे डॉक्टर के पास ले जाता है। पत्नी प्रेमिका पर घर सौंप कर ऑपरेशन को जाती है। उसे लगता है वो बच नही पाएगी पर वो बच जाती है। इधर प्रेमिका अपने घर की तरह उसका घर और बेटी को सम्भाले रखती है। ऐसे में जब नायक की पत्नी घर आती है तो प्रेमिका घर से जाने को तैयार है। तब पत्नी प्रेमिका को ये कह कर रोकती है कि ये घर अब उसका भी है। दोनो क्या साथ नही रह सकतीं। और इस तरह फ़िल्म पूरी होती है ।
नायक -दिल धड़कने की आवाज़ थी ख़ामोशी के सिवा कोई भी तो नही दिल धड़कने की आवाज़ थी .. ...
नायिका -बेसब हमको फिर तीसरे का गुमा कैसे और क्यों हुआ ?
नायक :-कोई भी तो नही,दिल धड़कने की .....
तेरी ज़ुल्फ़ों में भीगीं हुई मेरी ये उँगलियाँ ढूँढती हैं तुम्हें ,छू रहीं हैं तुम्हें
आ ना जाए कहीं आज पैरों तले अपनी परछाइयाँ धीरे -धीरे चलो,मुँह से कुछ ना कहो
जो भी कहना है आँखो से आँखे कहे .... ....
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