Tuesday, 20 December 2016
KHATTI-MITHI: मन का डाल -डाल होना !!!!
KHATTI-MITHI: मन का डाल -डाल होना !!!!: हम चीज़े भूल रहे है या जमाने के साथ कदम मिलाने के दौड़ में शामिल है ? कुछ समझ नही आता, हर दिन एक नई खबर हमें कुछ नया बताती है।वही दूसरे दिन ह...
मन का डाल -डाल होना !!!!
हम चीज़े भूल रहे है या जमाने के साथ कदम मिलाने के दौड़ में शामिल है ? कुछ समझ नही आता, हर दिन एक नई खबर हमें कुछ नया बताती है।वही दूसरे दिन ही उसे भूलने का इंतजाम भी तैयार होता है।शायद यही प्रकृति का नियम है ,"बदलाव और निरंतरता" मसलन कुछ रोज पहले जयललिता जी की मृत्यु का समाचार सुनकर मीडिया और फेसबुकिया दोस्तों ने इनके बारे में ज्ञान की वर्षा कर दी।इनकी वजह से "भीम राव अम्बेडकर जी" की पुण्यतिथी भी प्रभावित रही।दो दिन में जयललिता जी कि यादे धूमिल हो गई।65 लोग जो उनके शोक में मरे उनका फोरेंसिक जाँच होना चाहिए।इतनी प्रैक्टिकल दुनियां में कैसे किसी के लिए मर सकता है कोई ? बात पैसे के लिए लाइन में खड़े मौत की हो तो समझ में भी आये।खैर कल मुझे मालूम हुआ फेसबुक के जरिये ही "अनुपम मिश्रा जी" नही रहे।कुछ सुना था कुछ पढ़ा था इनके बारे में ,पर बहुत- बहुत धन्यवाद फेसबुकिया दोस्तों का ,जिन्होंने और ज्ञान में वृद्धि की।दिल्ली में रह कर भी कई लोगो से मिल नही पाई।कई बार ये सोच के मन दुखी हो जाता है।दुःख में भाई से कभी-कभी पूछती भी हूँ - देख ना भाई ,काहे ना मिलनी सन? कमाए खाये में रह गायनी खाली।मेरा भाई कहता है -छोड़ ना बहिन ,कई बार कुछ लोगो से ना मिलना ही अच्छा होता है।मिलने के बाद आपकी सोच के अनुकूल उनकी छवि ना होने पर बहुत दुःख होता है।वैसे मुझे लगता है ऐसा अमूमन कम ही होता है /होगा।भाई मुझे दिलासा देने के लिए कह देता होगा।भाई जानता है मेरा मन बहुत चंचल है।ईस वजह से बहुत जल्दी ही मै खुशी और दुःख के भाव से घिर जाती हूँ।मन मेरा कभी इस डाल तो कभी उस डाल।इसी डाल -पात के खेल में जाने ये सोच कहाँ से आई की -लोकप्रिय होने के लिए मृत्यु भी अहम भूमिका निभाती है।सोच कर मै दुखी हो गई थी।तभी ईस मृत्यु और पैसे के खेल या यूँ कहे बाजार में एक नन्हा जीवन कदम रखता है "तैमूर" ।वो भी लोकप्रिय हो जाता है।मुझे खुशी हुई कि कम से कम एक जीवन का बोलबाला चल पड़ा।अचानक लोग सब भूल गए।बंगाल में मौत घटना हो या फिर पैसे की मारामारी ,टेस्ट मैच की जीत हो या करुण नायर का तिहरा शतक।सच में तैमूर आप शासक हो एक -दो दिन के ही सही।,तैमूर आपका इस डाल -डाल पात -पात वाले खूबसूरत दुनियां में स्वागत है।कोई फर्क नही पड़ता आपका नाम तैमूर हो या सिकंदर ,राम हो या अर्जुन,नरेन्द्र हो या अरविन्द।सबको जीत की ईक्षा थी/है ,चाहे जैसे मिले।फिर ये भी तो है अगर नाम ही सब कुछ होता तो ,आज मै कही तपस्या कर रही होती या कोई साध्वी होती।आपके लोकप्रिय होने के लिए आपके माँ -बाप का नाम ही काफी है।बाद बाकी आपके इस नाम की वजह से ही, कुछ देर के लिए ही सही लोगो ने पुराने मसले पीछे छोड़ दिए है।कल के बाद लोग आपके नाम को छोड़ किसी और डाल पर होंगे।सोचिये एक नन्ही सी जान के आ जाने से अनुपम मिश्रा से लेकर नरेन्द्र मोदी जी तक चैन की साँस ले रहे होंगे।सारी राम -रहीम कथा का सार ये है कि ,हम जितना भी भूले ,भाग ले ,आधुनिक हो जाए ,पैसे के लिए रोये सब मोह माया है बंधू। जीवन और मृत्यु ही एक सत्य है।
Thursday, 15 December 2016
KHATTI-MITHI: गुलमोहर ,अमलतास और क्रिसमस ट्री !!!!
KHATTI-MITHI: गुलमोहर ,अमलतास और क्रिसमस ट्री !!!!: क्रिसमस ट्री की चमक -धमक देख के कुछ ऐसे पेड़ याद आ रहे है ,जो बिना किसी सजावट के "स्वर्ग के फूल" की उपाधि पा चुका है।वैसे तो क्रि...
गुलमोहर ,अमलतास और क्रिसमस ट्री !!!!
क्रिसमस ट्री की चमक -धमक देख के कुछ ऐसे पेड़ याद आ रहे है ,जो बिना किसी सजावट के "स्वर्ग के फूल" की उपाधि पा चुका है।वैसे तो क्रिसमस ट्री को भी "स्वर्ग के वृक्ष" की उपाधि मिली हुई है पर , मेरे "गुलमोहर " की बात ही कुछ और है।आह !वो लाल ,नारँगी ,हल्के पीले फूल।मानो गरमी के दिनों में सूरज मेरे गुलमोहर पर ही उगता हो।पेड़ की ऊचाई की वजह से इन फूलो को ना तोड़ने का मलाल तो रहता पर उसकी कमी इनकी पत्तियाँ पूरा कर देती।कॉलोनी के सारे बच्चे उचक -उचक के फूल तोड़ने की कोशिस करते।जो नीचे खिले फूल होते वो तो टूट जाते ,नही तो पत्तियाँ हाथ में आती।हमलोग उन पत्तियों को तोड़ कर बारिश -बारिश खेलते।कहने का मतलब जब आप गुलमोहर की पत्तियों को अलग -अलग करते है तो ,वे छोटे -छोटे बुँदे की तरह अलग होती है।फिर हमलोग उन्हें जेब में या फ्रॉक में इकट्ठा कर एक दूसरे के ऊपर फेकते और कहते भागो -भागो बारिश हो रही है।आह !कभी वो हल्की हरे रँग की बारिश तो कभी गाढ़े काई रँग की।बारिश ऐसी की सिर्फ मन भींगता और ना पीटने का डर होता।एक और खासियत गुलमोहर की ,मालूम नही इन पेड़ो पर क्यों मधुमक्खी के छत्ते हमेशा ही लगे रहते।शायद ये इन चटक फूलो का कमाल हो कि मधुमक्खियाँ भी इनसे खींची चली आती हो।कॉलोनी में हमेशा मधु इक्ट्ठा करने वाले घूमते रहते।कभी -कभी तो शहद की चोरी भी हो जाती।जब नही होती तो कॉलोनी में सब के यहाँ शहद बाटाँ जाता।
एक ऐसे ही दूसरा पेड़ था ,"अमलतास"का।आह! उसके सुन्दर पीले फूल ,मानो कोई झालर लटका हो पेड़ से।ठीक वैसे ही जैसे हम क्रिसमस ट्री के ऊपर झाड़- फेनूस लगाते है।इसके लंबे डंडीनुमा फल होते है।जिसको हम बच्चे तलवार के रूप में इस्तेमाल करते।इनके फूलो को कान में फसा कर कुंडल बनाते।हमारे लिए इनके फूल और फल ही क्रिसमस गिफ्ट होते।वैसे तो प्रकृति द्वारा बनी हर चीज़ अनमोल है पर ,वो क्या है ना बचपन से जुड़ी यादे ज्यादा अनमोल होती है ,इसलिए भाववश कही न कही तुलना की भावना आ ही जाती है।यहाँ के बच्चों के लिए तो नुकीली पतियों वाला क्रिसमस ट्री ही प्रिय होगा।उसपे लटके हुए नकली चाँद और सितारे ही उनके लिए सुंदरता का पैमाना होंगे।मेरी एक जर्मन दोस्त ने बताया था कि ,क्रिसमस ट्री जीवन की निरंतरता की प्रतिक है।इससे बुरी आत्माये दूर होती है और सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है।
तो कह सकते है हमारी तुलसी मईया जैसी।बस आकार में अंतर।उफ्फ ! पागल लड़की हर बात में तुलना करना जरुरी है क्या ?अरे नही भाई हम तो बस बताए रहे थे।क्या करे मनुष्य का स्वाभाव ही कुछ ऐसे होता है कि ,उसे अपनी चीज़े ही ज्यादा अच्छी लगती है।पर अब तो कॉलनी में ना तो अमलतास दिखा ना ही गुलमोहर की लाइन से पेड़।एक -आध गुलमोहर के पेड़ आधा सूखे हालात में थे ,जो कभी भी अपना दम तोड़ सकते है।क्या वो सब भी खत्म हो जायेंगे।बस उनकी जगह रह जायेंगे उनकी यादे।खैर आप सभी को क्रिसमस की गुलमोहर भरी शुभकामनाये।अमलतास की फूलो और फलो जैसी खुशियाँ,ऊपहार हमेशा आपके जीवन में बनी रहे।
एक ऐसे ही दूसरा पेड़ था ,"अमलतास"का।आह! उसके सुन्दर पीले फूल ,मानो कोई झालर लटका हो पेड़ से।ठीक वैसे ही जैसे हम क्रिसमस ट्री के ऊपर झाड़- फेनूस लगाते है।इसके लंबे डंडीनुमा फल होते है।जिसको हम बच्चे तलवार के रूप में इस्तेमाल करते।इनके फूलो को कान में फसा कर कुंडल बनाते।हमारे लिए इनके फूल और फल ही क्रिसमस गिफ्ट होते।वैसे तो प्रकृति द्वारा बनी हर चीज़ अनमोल है पर ,वो क्या है ना बचपन से जुड़ी यादे ज्यादा अनमोल होती है ,इसलिए भाववश कही न कही तुलना की भावना आ ही जाती है।यहाँ के बच्चों के लिए तो नुकीली पतियों वाला क्रिसमस ट्री ही प्रिय होगा।उसपे लटके हुए नकली चाँद और सितारे ही उनके लिए सुंदरता का पैमाना होंगे।मेरी एक जर्मन दोस्त ने बताया था कि ,क्रिसमस ट्री जीवन की निरंतरता की प्रतिक है।इससे बुरी आत्माये दूर होती है और सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है।
तो कह सकते है हमारी तुलसी मईया जैसी।बस आकार में अंतर।उफ्फ ! पागल लड़की हर बात में तुलना करना जरुरी है क्या ?अरे नही भाई हम तो बस बताए रहे थे।क्या करे मनुष्य का स्वाभाव ही कुछ ऐसे होता है कि ,उसे अपनी चीज़े ही ज्यादा अच्छी लगती है।पर अब तो कॉलनी में ना तो अमलतास दिखा ना ही गुलमोहर की लाइन से पेड़।एक -आध गुलमोहर के पेड़ आधा सूखे हालात में थे ,जो कभी भी अपना दम तोड़ सकते है।क्या वो सब भी खत्म हो जायेंगे।बस उनकी जगह रह जायेंगे उनकी यादे।खैर आप सभी को क्रिसमस की गुलमोहर भरी शुभकामनाये।अमलतास की फूलो और फलो जैसी खुशियाँ,ऊपहार हमेशा आपके जीवन में बनी रहे।
Tuesday, 29 November 2016
कुछ महिलाये अमेरिका से क्यूबा की ओर देखती हुई !!!
ख्याल ,आह इनका क्या करे कोई ? मुझे भी कुछ दिनों से कुछ ऊटपटाँग ख्याल आ रहे है।जैसे मुझे लगता है भारत की नवजवान पीढ़ी के सिर पर दो ही देश का नशा है।एक तो पाकिस्तान दूसरा अमेरिका।दोनों ही सूरतो में मुझे यही लगा ,ताकत चाहे किसी के पास हो ,सही हो या गलत लोग उसकी पूजा करते है,या उससे नफरत।अब देखिये ना ,फ़िदेल कास्त्रो (क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति )की मौत पर विश्व भर से शोक सन्देश भेजे गए।साथ ही ये भी बताया जा रहा था -अमेरिका का विरोध करने वाला तानाशाह।मुझे इनके बारे में ज्यादा मालूम नही था।गूगल किया तो कुछ अच्छी तो कुछ बुरी बाते इनकी सामने आई।ज्यादा जानकारी ना होने की वजह से बस यही कह सकती हूँ ,मैंने तो बस "चे ग्वेरा"के द्वारा क्यूबा को जाना।उनकी "मोटर साइकिल डायरीज़" देखी थी,और उनसे प्रभावित हुई।खैर मुझे वैसे भी फ़िदेल से ज्यादा "चे ग्वेरा "ने प्रभावित किया है।इनके बारे में लिखने का मेरा मेन उद्देश्य -"महात्मा ज्योतिराव फुले "जी है।आज के ही दिन ,28 नवम्बर 1890 को इनकी मृत्यु हुई थी।फेसबुक पर भारतीय यूथ ने फ़िदेल के मृत्यु का शोक खूब धूम -धाम से मनाया पर ,भारत के इस समाज सुधारक के लिए किसी ने एक लाइन तक नही लिखी।बात वही घर की मुर्गी दाल बराबर ,या फिर फ़िदेल साहब ताज़ा- ताज़ा मृत्यु को प्राप्त हुए है,और फुले जी को मरे हुए सालों हो गए।या फिर हो सकता है मेरी तरह के लोग जो "फ़िदेल" की जगह "चे ग्वेरा" को ज्यादा जानते है।वैसे ही लोग "फुले" से ज्यादा "भीमराव अम्बेडकर"को जानते हो।जो भी हो "महात्मा फुले" ने जो "स्त्री कल्याण" और "निचले तबके" के लिए काम किया उसको कैसे भुला जा सकता है? ज्योतिराव फुले पहले ऐसे शख्स थे, जिन्होंने महिलाओं के लिए पहला स्कूल खोला।इनके लिए शिक्षा सबके लिए अनिवार्य थी।चाहे वो छोटी जाती के लोग हो या फिर महिलाये।सन 1848 में इन्होंने महिलाओ के लिए जब स्कूल खोला था ,तब महिलाओ की शिक्षा को अनिवार्य नही माना जाता था।अपनी पत्नी "सावित्री बाई"को भी इन्होंने साक्षर बनाया।दोनों मिलकर समाज कल्याण के कार्य में जुट गए।ऊँचे तबके के लोगो और पारिवारिक दबाब के बीच इन्होंने निचले तबके की महिलाओ और गरीबो की मदद की।छुआ-छूत दूर करने,विधवाओं के कल्याण ,किसानों के लिए "एग्रीकल्चर एक्ट"पास करवाने में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।इनके इन महत्वपूर्ण कार्यो की वजह से इन्हें "महात्मा" की उपाधी दी गई।डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर इन्हें अपना गुरु मानते रहे।इतना कुछ योगदान के बावजूद भारतीय फेसबुकिया यूथ के पास इनके लिए समय नही।या फिर भारतीय समाज में महिलायें और किसान हमेशा से हाशिये का विषय रहे है ?काश फुले साहब अमेरिका के विरोध में लगे रहते तो आज उनका भी बड़ा नाम होता।क्यूबा का फ़िदेल जी ने जो भी कल्याण किया उससे ज्यादा वो अमेरिका के विरोधी बनकर फेमस हुए।"हाय रे अमेरिका " फुले साहब शन्ति से भारत सुधार के दिशा में काम करते रहे ,पर विरोद्ध जो नही किया।क्या करे अमेरिका इतनी दूर जो था।कम से कम पाकिस्तान बन गया होता तो कुछ सोचते शायद।खैर ज्योतिराव फुले और फ़िदेल कास्त्रो आप दोनों को मेरी श्रद्धांजली।की-बोर्ड को विश्राम देते हुए कुछ महिलाये अमेरिका से क्यूबा की ओर देखती हुई।
Monday, 21 November 2016
KHATTI-MITHI: दुबिधा !!!
KHATTI-MITHI: दुबिधा !!!: दोपहर के समय ऐसे ही फेसबुक चेक कर रही थी ,तभी देखा "हिमांशु जी" ने एक भोजपुरी फिल्म को लाइक किया था।कुछ करने को था नही ,नींद भी आ...
दुबिधा !!!
दोपहर के समय ऐसे ही फेसबुक चेक कर रही थी ,तभी देखा "हिमांशु जी" ने एक भोजपुरी फिल्म को लाइक किया था।कुछ करने को था नही ,नींद भी आ रही थी, पर पता नही कैसे ऊंगलिया मूवी के लिंक तक गई और फिल्म चल पड़ी।सोचा जब चल ही गई है तो थोड़ा देखती हूँ ,अच्छा नही लगा तो सो जाऊँगी।अमूमन आजकल की भोजपुरी फिल्मे ऐसी ही होती है कि,नींद आ जाये।फिल्म का नाम "नया पता" फिल्म में थोड़ी देर के बाद ही जब "याद पिया की आये" गाना बजता है ,मैं उठ के बैठ जाती हूँ।नींद आँखों से गायब।मै सोच में पड़ गई ,भोजपुरी फिल्म और क्लासिकल सॉन्ग व्हाट अ सरप्राइज।अब तो पूरी मूवी देखनी पड़ेगी।सच मानिये इस मूवी का एक बेस्ट पार्ट इसका संगीत भी है।चाहे कबीर जी की "माया महा ठगनी "हो या भिखारी ठाकुर जी की "रे सजनी रे सजनी " आह !सच में अद्भुत।यूँ तो फिल्म बिहार की सबसे प्रमुख समस्या "पलायन " पर आधारित है ,पर मुझे इसमें कई और समस्याओं का ताना -बाना दिखा।मसलन कैसे कोई परदेसी बन जाता है ,गाँव लौटने के बाद भी परदेसी ही रहता है ,गाँव में कुछ अच्छा करने का लोग कुछ और ही मतलब निकालने लगते है और सबसे बड़ी बात आज भी शिक्षा का स्तर बिहार में एक "खिचड़ी "से ज्यादा कुछ नही।सँयोग देखिये आज ही हमलोग का ग्रीनकार्ड अप्लाई हुआ और आज ही फिल्म देख कर गाँव वापस जाने की ईक्षा प्रबल हो गई।पता नही ये सिलसिला कब तक चलता रहेगा ? फिल्म देखा गाँव जाना है ,सारदा सिन्हा जी के छठ के गीतों को सुनकर गाँव जाना है, किसी का शादी -ब्याह है गाँव जाना है ,पर हाय रे गाँव तुमने कही का नही छोड़ा।ना तो अपने पास बुलाने की ईतनी हिम्मत देते हो कि ,सब छोड़ के आ जाए ना ही हमारे ख्यालों से जाते हो जो हम चैन से रह सके।वैसे क्या रखा है तुम्हारे पास ? ना तो अब पुराने संगी -साथी रहे ना नाते -रिस्तेदार।ना ही वो हरियाली ना ही रोजगार।महँगाई के साथ हमारी जरूरते भी तो बढ़ी है ,पर तुम हो कि वही अटके पड़े हो।परदेसी ना बने तो क्या करे ? अच्छी शिक्षा ,अच्छी नौकरी और अच्छे जीवन की तलाश में हम इस शहर से उस शहर भटक रहे है।कोई पूछे तो अपना पता बिहार बताते है ,पर जब वही बिहार आते है तो, सब पूछते है वापस कब जाना है ? कितने दिनों के लिए आई हो ? ऐसा मालूम होता है मेरा असली पता कभी ,पटना , कभी दिल्ली या कभी अमेरिका हो जाता है।शादी के बाद तो और दुर्गति है।ना घर के ना घाट के वाली हालत।मायके वाले ये कहते है कि ससुराल ही तुम्हारा घर है ,ससुराल वापस आओ तो ये पूछा जाता है -घरे से कब आयलु ह? खैर हद तो तब होती है जब मेरा संबोधन अमेरिका वाली पतोह कह कर होता है।मेरी सासु माँ को मालूम है ,ये शब्द मुझे बिल्कुल नही पसंद इसलिए जैसे कोई कहता है-इहे हई अमेरिका वाली तो वो तुरंत कहती है -इहे हई हमार तपस्या।कई बार ऐसा लगता है छोड़ो माया- मोह इंडिया वापस चलते है ,फिर दिल को झूठी तसल्ली देते है -वहाँ जाके भी तो दिल्ली ,पुणे या बैंगलोर रहो तो बात वही हुई यहाँ रहो या वहाँ।ऐसा लगता है धीरे -धीरे सुबिधाओं के गुलाम बनते जा रहे है।हाँ हमारा दुःख दिहाड़ी मजदुर से थोड़ा कम है।पर है तो हम भी "मजदुर"।हमारे दुःख की आँच थोड़ा कम होती है- हम ऐसी की हवा खाते है ,पति -पत्नी साथ रहते है ,घूमना -फिरना ,दोस्त -पार्टी सब चलते रहता है।साथ ही अब तो वीडियो कॉल जब से होने लगा है ,घरवालों को हम और हमें वो थोड़ा कम याद आते है।हम भी अपने स्थाई पता की तलाश में भटक रहे है।जहाँ ना गाँव की याद हो ना शहर का शोर।जाने कहाँ मिलेगी ? जाने कहाँ होगा मेरा पता ?
Thursday, 27 October 2016
KHATTI-MITHI: भक्ति -प्रेम का मिलन त्यौहार !!!
KHATTI-MITHI: भक्ति -प्रेम का मिलन त्यौहार !!!: हम जहाँ से है वहाँ दुर्गा पूजा ,दिवाली ,छठ पूजा और होली हमारा वैलेंटाइन डे होता है।माने वहाँ तब तो ऐसन कोई सुबिधा नही थी ,जहाँ प्रेमी युगल ...
भक्ति -प्रेम का मिलन त्यौहार !!!
हम जहाँ से है वहाँ दुर्गा पूजा ,दिवाली ,छठ पूजा और होली हमारा वैलेंटाइन डे होता है।माने वहाँ तब तो ऐसन कोई सुबिधा नही थी ,जहाँ प्रेमी युगल मिल के बतिया सके।चाय -कॉफी पी सके।बस दुरे से देख लिए ,मुस्कुरा लिए ,लड़की के घर के आस -पास साइकिल नाचा लिए हो गए खुश।इहाँ कहाँ कॉफी हॉउस चाहे पार्क।हाँ चाय की गुमटी कदम कदम पर मिल जाएगी।जहाँ दुनिया भर की पॉलिटिक्स होगी भाई।लेकिन का फायदा उ पॉलिटिक्स का जो ,नीतीशवा एगो पार्को ना बनवा पाया बसंतपुर में।अब ऐसे में माता रानी की ही कृपा होती थी/है।जैसे बड़े शहरों में वैलेंटाइन डे के पहले पचास गो डे होता है -चॉकलेट डे ,खेलवना दे (टेडी डे ),गुलाब दे (रोज़ डे ) औरि ये दे वो दे ,डे।वैसे ही दुर्गा पूजा के नाइन डे हमारे यहाँ।ना कुछ दे ना ले बस धार्मिक प्रेम होता।माने इंतज़ार होता, कब से नवरातन के दिया जरावे आहिहे हमार जान हो ? अच्छा ,अभी तक जान के मालूम भी नइखे कि उ केतना के जान हई।बस बेचारी जान ये शरीर से वो शरीर घूम रहल बारिन।माने कितनो की जान बनकर।जब लड़का सब में मार होता है ,तब मालूम होता है -अरे बाप रे ,पुजवा (पूजा )के चक्कर में केतना के माथा फुटल।खैर नवरातन के शुरआत से लडकियां मईया जी के मंदिर में दिया जलाने जाती है।ये कार्यक्रम 9 दिन चलता है।रोज शाम को सज-धज के ,हाथ में फूलडाली (जिसमे पूजा का सारा सामान रखा होता है )लेकर मंदिर की ओर रंगबिरंगी लड़कियों का झुण्ड चल पड़ता।उस वक़्त माहौल भक्ति- प्रेम का होता।कितना सरल और सस्ता प्रेम न कुछ दो ना लो।साला ये वैलेंटाइन डे -इसके चक्कर में हम गरीब प्रेमी कहाँ जाये ? एगो कार्डवो ख़रीदे तो दे नही पाते ,मन मसोस के रह जाते।कार्ड के आगे पीछे सारे दर्द भरे शायरी चिपका दिए ,पर का फायदा जो इ दरद पंहुचा ही नही पाया।दूना दुःख हुआ।पइसो बर्बाद और कार्ड देख के मन में औरि बौराने लगता।ना देम त वैलेंटाइन के का होई ? वो तो माता रानी की जय हो ,जो इनकी कृपा से अपनी रानी को 9 दिन देख पाते है।बिना किसी डर के,बिना रोक टोक के।एक दो बोल -बाल मार कर खुश हो लेते है।वैसे मेरे साथ भी इससे एक किस्सा जुड़ा हुआ है।मै भी मोहल्ले की लड़कियों के साथ दीया बारने जाने लगी।पहले जब छोटी थी ,तो ये सब बहुत अच्छा लगता था।बाजार की चमक धमक ,मंदिर में दीया जलना।पर जब से पटना पढ़ने गई ,तब से फूलडाली लेकर जाने में शर्म आने लगी।माँ से कहती की ईस बार रहने देते है।माँ मेरी अत्यधिक धर्मिक -कहती अरे देवी माँ के मंदिर में दीया नही जलेगा?जैसे मानो मेरे एक दीया नही जलाने से मंदिर अंधकारमय हो जायेगा।जाओ -रेखा ,पप्पी ,सीमा इंतज़ार कर रही है।एक तो और समस्या थी मेरे साथ।गर्मी के दिन हो तो दो बार नाहा भी लो ,एक तो हल्की ठंढ दूसरा शाम का वक़्त फिर से नहाओ, फिर जाओ उफ्फ! ऐसे में मेरा भाई हमेशा की तरह मेरा कवच,मेरा तारन हार बनके आया।बोला- माँ दीया जलाने जाना जरुरी है क्या ? माँ पूछी क्यों ? भाई बोला -वहाँ दुर्गा स्थान पर लफुए लड़को का झुण्ड घूमता रहता है।वहाँ पूजा थोड़े होता है।वैसे तो मेरा भाई बहुत शरीफ है ,पर क्या है ना ,है तो वो भी लड़का ही।घूम रहा होगा वो भी या देखा होगा कुछ ऐसा।अब तो बात श्रद्धा और इज़्ज़त पर आ गई।इज़्ज़त जीत गई और माँ ने कहा कोई बात नही ,मै किसी और को बोल दूँगी मेरे बदले दीया जला देगी।खैर तो इस तरह हमरा 9 दिन का आस्था पूर्वक वैलेंटाइन डे चलता रहता है।फिर बात आती है दिवाली की।दिवाली से घर की साफ़ -सफाई के साथ छठ पूजा की तैयारी शुरू हो जाती है।ईसी सिलसिले में लड़कियों को कई बार खरीदारी के लिए बाजार जाना होता है।बाजार में भी चहल -पहल हो जाती है ,और प्रेमियो की भी।अब तो कपडे खरीदे के लिये किसी विशेष दिन का इंतज़ार नही होता पर करीब 10 /15 साल पहले फिक्स होता।होली ,दुर्गा पूजा ,दिवाली या छठपूजा।हाँ स्कूल ड्रेस और जन्मदिन का कपड़ा अपवाद होता।सभी लड़के ,लड़कियाँ ,महिलायें त्योहारो पर खूब सजती।नए कपड़े पर इठलाती।उस वक़्त फेसबुक ,व्हाटअप तो था नही ,पर कपड़े तो दिखने थे ,मेकअप तो दिखाना था।बस फिर क्या ? एक घर से दूसरे घर घूमते रहो।सबसे मिलना भी हो जाता और खुद का प्रदर्शन भी।मेरे जैसी आलसी प्राणी के लिए तो फेसबुक ,इंस्टाग्राम वरदान साबित हुआ।अरे नही दो -चार बार इज़्ज़त मार भी साबित हुआ -जब ससुराल के कुछ अनजान देवर लोग ,मेरी सासु माँ को कहते -बड़की माई आज भाभी के फेसबुक पे देखनी ह।स्कर्ट पहिन के घुमत रहली ह।देखी ना फोटो भी लोड कर लेनी।अब क्या बोलू ? कमीनो तुमने देखा चलो ठीक।देख के डाउनलोड करके प्रचार करने में लग गए।वो तो भला हो सासू माँ का जो इन सब बातो पर ध्यान नही देती।बस मुझे प्यार से कहा तनी देख के फोटो लगावल करअ ।खैर कितना भोलापन होता था उस वक़्त।नए कपडे नही ,मानो नए "पर" होते।सब उड़ रहे होते प्रेम ,ख़ुशी ,उल्लास से।जिन भाभियो या चाचियों के पति परमेश्वर बाहर कमाने गए होते उनके लिए यही त्यौहार उनका तीज(करवा चौथ )होता।माँ लोगो के लिए यही त्यौहार उनका जितिया (बच्चे के लिए किया जाने वाला फास्टिंग )और बहनो के लिए राखी।वही छिटपुटिये या कभी -कभार सीरियस प्रेमी युगल का वैलेंटाइन।सभी प्रेम पूर्वक त्यौहार मानते।भगवान् से प्रार्थना है कि ,सबके दिलो में प्रेम के दीये जलते रहे ,माता रानी की कृपा बानी रहे ,छठी मईया अपनी ओर खिंचती रहे।घर वाले ये कहना कभी ना भूले की छठ बा "ऐसो त आ जा"।सबको "दिवाली" की "छठ पूजा" की भक्ति -प्रेम में डूबी शुभकामनाये !!
Tuesday, 18 October 2016
KHATTI-MITHI: प्रेम और प्रीतम !!!!
KHATTI-MITHI: प्रेम और प्रीतम !!!!: बहस बहस बहस ! हर जगह,हर बार बस बहस ही बहस।कभी देश की सुरक्षा के नाम पर ,कभी पॉलिटिक्स को लेकर ,कभी फिल्मों को लेकर,कभी बुर्खा तो कभी तलाक...
प्रेम और प्रीतम !!!!
बहस बहस बहस !
पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
हर जगह,हर बार बस बहस ही बहस।कभी देश की सुरक्षा के नाम पर ,कभी पॉलिटिक्स को लेकर ,कभी फिल्मों को लेकर,कभी बुर्खा तो कभी तलाक के नाम पर।हँसी तो मुझे राम मंदिर की जगह राम म्यूजियम बनने की बात पर आई।वो दिन दूर नही भईया जब लोग चिड़ियाघर और गाँधी म्यूज़ियम की जगह ,राम जी या अल्लाह मियाँ के चिड़ियाघर या म्यूज़ियम जायेंगे।भाई राम जी के चिड़ियाघर से मेरा तात्पर्य बिल्कुल हनुमान जी से नही था।वो तो मेरे फेवरेट भगवान् है।हाँ बाली -सुग्रीव ,जटायु आदि के बारे में कुछ कह नही सकती।बुरा ना मानो दिवाली है :) अमृता प्रीतम जी की एक कविता आज के हालातों के नाम।
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों सी…
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर
हर मकान एक मुट्ठी सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियां, ज्यों मूंह से झाग बहती है
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां हार्न एक दूसरे पर झपटते
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां हार्न एक दूसरे पर झपटते
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
शंख घंटों के सांस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
पर नींद में भी बहस खतम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….
अब बात अमृता जी की।कई बार अमृता जी के बारे में लिखने का सोचा ,पर हर बार ही रह जाता था ।मुझे अमृता जी की जीवनी काफी दिलचस्प लगती है।एक महिला जिसकी प्रेम कहानी को समझ पाना ,जैसे इंद्रधनुष को देखना।अलग -अलग रंग ,पर आपकी पहुँच और समझ से परे।अमृता जी का जन्म पंजाब के गुजरांवाला में हुआ था।बटवारे के बाद वो लाहौर से भारत आ गई थी।16 साल की उम्र में अमृता जी की शादी प्रीतम सिंह से हुई ,और वही से अमृता कौर "अमृता प्रीतम" बन गई।कुछ बरसो के बाद अमृता अपने पति से अलग हो गई।इन्होंने ने कभी अपने पति से तलाक नही ली।हो सकता हो तलाक या शादी इनके लिए किसी सर्टिफिकेट से ज्यादा कुछ मायने ना रखते हो।कुछ समय बाद इनकी प्रेम कहानी गीतकार "साहिर लुधियानवी" जी के साथ शुरू हुई।प्रेम का आलम ये कि ,इनकी कविताओं में साहिर तो वही साहिर के गीतों में अमृता।प्रेम के बावजूद कही विश्वास की कमी की वजह से ये दोनों एक नही हो पाए।फिर अमृता जी के जीवन में ईमरोज का आना ,मानो इनके जीवन में रंगों का भर जाना।ईमरोज एक पेंटर है और वो अमृता जी कविताओ के लिए स्केच बनाया करते थे।अमृता और ईमरोज को साथ रहने के लिए शादी की मुहर की जरुरत नही थी।वे दोनों साथ रहे पर कभी शादी नही की।ईमरोज अमृता के साथ अंत तक रहे।अमृता 31 ऑक्टबर 2005 को हमें अपनी कविताओं के साथ छोड़ गई। कभी -कभी मैं सोचती हूँ ,क्या अमृता को भी समाज का डर लगा होगा ? क्या उनको भी चरितहीन का दर्जा दिया गया होगा ?बावजूद इसके उन्होंने अपने जीवन को प्रेम से सींचा ,प्रेम किया और प्रेम पाया।विचार स्वछन्द ,जीवन स्वछन्द ,शरीर स्वछन्द ,लेखनी स्वछन्द।सच में अमृता आपकी लेखनी के साथ आपका जीवन भी साहस का परिचय देता है।क्या खूब लिखा है आपने - "परछाई पकड़ने वालो ,छाती में जलती आग की कोई परछाई नही होती "आपकी कई कविताये पसंद है मुझे ,उनमे से कुछ -
*मेरी सेज हाजिर है पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज है……
* मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
Wednesday, 28 September 2016
यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाए
आँख की पुतली में हाँ के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है ।
हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूँज की तरह गलियों में बहता है
गेहूँ की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफ़ा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे ख़तरा है
गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज़ के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख़्वाहों के मुँह पर थूकती रहे
क़ीमतों की बेशर्म हँसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से ख़तरा है
गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक़्ल, हुक्म के कुएँ पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है।
"पाश " की लिखी ये कविता आज के समय में कितनी सच्ची लगती है ना।चारो तरफ हो -हंगामा है ,सुरक्षा को लेकर।चाहे भारत हो या अमेरिका हर जगह एक ही शोर ,पर हमें खतरा किससे है ?अपने से या अपनों से ? खुद से या खुद के डर से ? भारत -पाक -अमेरिका -चीन सुन -सुन कर दिमाग में केमिकल लोच होने लगा है।समझ नही आता किसे मारे के,कहाँ मरे कहाँ माफ़ करे ?खैर पाश ! चाहे आपकी कविता ,"अब विदा लेता हूँ "हो या "मैंने एक कविता लिखनी चाही "हो या फिर "*सबसे खतरनाक होता है सपनो का मर जाना" ,सबने मुझे सोचने पर ,रोने पर विवश किया। अवतार सिंह संधू यानि हमारे पाश का जन्म पंजाब के जालंधर में 9 सितम्बर 1950 को हुआ था। आपके नाम का "संधू" हटा कर अगर "साधु"कर दिया जाय तो ,इसमें कोई आश्चर्य नही होगा।साधु कहने से मेरा मतलब किसी धर्म से नही इसकी प्रकृति से है।जैसे एक साधु हर बंधन से मुक्त होता है ,आपके विचार भी वैसे ही भय मुक्त ,बंधन मुक्त है।पाश की नक्सलवादी राजनीती से सहानुभूति थी।इन्होंने पंजाबी में कविताये लिखी ,कुछ पत्रिका का संपादन भी किया।कुछ पंजाबी में लिखी होने से पढ़ नही पाई ,पर इनकी कविताये जब भी पढ़ो प्रभावित करती है।39 साल की उम्र में ही आपकी हत्या कर दी गई।हत्या मनुष्य की होती है पाश , विचारो की नही।जीवन के बारे में लिखी आपकी इस कविता के साथ विदा लेती हूँ।
कि बिना जमीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाए
आँख की पुतली में हाँ के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है ।
हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूँज की तरह गलियों में बहता है
गेहूँ की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफ़ा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे ख़तरा है
गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज़ के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख़्वाहों के मुँह पर थूकती रहे
क़ीमतों की बेशर्म हँसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से ख़तरा है
गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक़्ल, हुक्म के कुएँ पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है।
"पाश " की लिखी ये कविता आज के समय में कितनी सच्ची लगती है ना।चारो तरफ हो -हंगामा है ,सुरक्षा को लेकर।चाहे भारत हो या अमेरिका हर जगह एक ही शोर ,पर हमें खतरा किससे है ?अपने से या अपनों से ? खुद से या खुद के डर से ? भारत -पाक -अमेरिका -चीन सुन -सुन कर दिमाग में केमिकल लोच होने लगा है।समझ नही आता किसे मारे के,कहाँ मरे कहाँ माफ़ करे ?खैर पाश ! चाहे आपकी कविता ,"अब विदा लेता हूँ "हो या "मैंने एक कविता लिखनी चाही "हो या फिर "*सबसे खतरनाक होता है सपनो का मर जाना" ,सबने मुझे सोचने पर ,रोने पर विवश किया। अवतार सिंह संधू यानि हमारे पाश का जन्म पंजाब के जालंधर में 9 सितम्बर 1950 को हुआ था। आपके नाम का "संधू" हटा कर अगर "साधु"कर दिया जाय तो ,इसमें कोई आश्चर्य नही होगा।साधु कहने से मेरा मतलब किसी धर्म से नही इसकी प्रकृति से है।जैसे एक साधु हर बंधन से मुक्त होता है ,आपके विचार भी वैसे ही भय मुक्त ,बंधन मुक्त है।पाश की नक्सलवादी राजनीती से सहानुभूति थी।इन्होंने पंजाबी में कविताये लिखी ,कुछ पत्रिका का संपादन भी किया।कुछ पंजाबी में लिखी होने से पढ़ नही पाई ,पर इनकी कविताये जब भी पढ़ो प्रभावित करती है।39 साल की उम्र में ही आपकी हत्या कर दी गई।हत्या मनुष्य की होती है पाश , विचारो की नही।जीवन के बारे में लिखी आपकी इस कविता के साथ विदा लेती हूँ।
Thursday, 15 September 2016
युगन युगन हम योगी !!!!
कबीर को पढ़ना और समझना दोनों ही असीम अनुभूति है।कबीर को थोड़ी और गहराई से समझने का सौभाग्य मुझे मिला।बहुत- बहुत धन्यवाद "दीपक" कबीर रूपी खजाना मुझे भेजने के लिए।किताब पढ़ते समय मुझे "कुमार गंधर्व जी" की याद आई।आह ! कबीर का चिंतन और "पंडित कुमार गंधर्व जी" की गंभीर आवाज ,सच में एक अलग ही आध्यात्म की अनुभूति,जहाँ से आप वापस आना ना चाहो।एक तरफ जहाँ कबीर एक स्वतंत्र चिंतक, दूसरी तरफ पंडित जी बिना किसी घराने के बंधक।सच में अलौकिक मिलाप।कबीर के बारे में आप सब जानते ही होंगे।पंडित कुमार गंधर्व के बारे में भी बहुत लोग जानते होंगे।आज कुमार जी के बारे में कुछ लिख रही हूँ।मैंने पंडित जी का सिर्फ नाम सुना था 6 /7 साल पहले।तब मेरा भाई सरोद सीख (वाद्य यंत्र )सीख रहा था।कभी पंडित जी को सुना नही।भाई ने एक- आध बार इनके बारे में बताया और सुनने को कहा।पर उस वक़्त मैं किसी और दुनिया में मशगूल थी।मेरे कहने का मतलब इस तरह की संगीत की ना तो समझ थी ना ही सुनने की ईक्षा।भाई को भी कभी चिढ़ाती तो कभी लड़ती क्या ये दिन भर आ -आ बजाते रहते हो ?धीरे -धीरे चिढ़ते -चिड़ाते मुझे भी मालूम नही कब "हिंदुस्तानी क्लासिकल "अच्छा लगने लगा।हालाँकि अभी भी इसमें मेरा ज्ञान काफी कम है ,पर मैं इसे अब घंटों सुन सकती हूँ।वो क्या है ना ,दावा कड़वी होती है पर असर तो जरूर करती है।यही हाल है हिंदुस्तानी क्लासिकल का।दिमाग और मन का टॉनिक है ये।हाँ तो बात कुमार जी की,-कुमार जी का असली नाम " शिवपुत्रा सिद्दरामैया कोमकलीमठ" था।इनका जन्म 8 अप्रैल 1924 को कर्नाटक के बेलगाम डिस्ट्रिक में हुआ।गाँव का नाम सुलेभावी। 5 साल की उम्र से ही इन्होंने संगीत की शिक्षा शुरू की। 10साल की उम्र में इन्होंने पहला स्टेज परफॉर्मेन्स दिया।कहते है इनकी गायकी से प्रभावित होकर इनको "गंधर्व "की उपाधी दी गई।तभी से इनको "पंडित कुमार गंधर्व "कहा जाने लगा।सन 1947 में इनको टीवी (क्षय ) का रोग हो गया।डॉक्टर ने इनको गाने की मनाही कर दी।लगभग 6 साल की बीमारी में ,बिस्तर पर पड़े- पड़े ,इन्होंने हर तरह के संगीत को महसूस किया।चाहे वो चिड़ियाँ की चहक की हो ,हवा के झोंके हो या गली में यूँही गाते फकीरो के गीत या फिर लोक गीतों की धुन।सबको सुनते और गुनगुनाते रहते।डॉक्टर की दावा और पहली पत्नी "भानुमति" की सेवा से कुमार जी ठीक तो हो गए ,पर उनका एक फेफड़ा खराब हो गया था।अपनी इस कमजोरी को उन्होंने बेहतरीन गायन शैली के ईज़ाद से एक ताकत का रूप दिया।इसी क्रम में वो "निर्गुण भजन" की तरफ झुके।कबीर को उन्होंने अपनी बुलंद और अनोखी शैली से एक आद्यात्मिक संगीत का रूप दिया।मुझे तो अब इनकी गाई सारे निर्गुण ,लोकगीत अच्छे लगते है।चाहे वो" सुनता है गुरु ज्ञानी ,गगन में आवाज़ हो रही है हो" ,या" फिर उड़ जायेगा हंस अकेला" हो।इनसब में प्रिय मुझे " झीनी -झीनी- झीनी बीनी चादरिया ,काहे का ताना काहे की बरनी "और "युगन -युगन हम योगी" है।युगन -युगन की कुछ लाइनें -
युगन युगन हम योगी
अवधूता युगन युगन हम योगी
आवे ना जाये ,मिटे ना कबहूं
सब्द अनाहत योगी ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
सब ही ठौर जमात हमारी ,सब ही ठौर पर मेला
हम सब मांय ,सब है हम माय
हम है बहुरी अकेला ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
मतलब - हे !अवधूत (अदृश्य परमात्मा ,ओमकार ,योगी ) हम तो युगों -युगों से योगी है। ना मै आया हूँ ना मै मिटा (नष्ट )हुआ हूँ ,मै कभी ना खत्म होने वाले ध्वनि या संगीत का आनंद ले रहा हूँ ,मै तो सदा से योगी हूँ। हर तरफ मेरे ही समुदाय के मेरे ही लोग है ,मै सबसे मिलता हूँ ,मै सबमे हूँ और सब मुझमे ,फिर भी मै अकेला हूँ।हे ! अजान्य शक्ति मै तो युगों -युगों से योगी हूँ।
युगन युगन हम योगी
अवधूता युगन युगन हम योगी
आवे ना जाये ,मिटे ना कबहूं
सब्द अनाहत योगी ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
सब ही ठौर जमात हमारी ,सब ही ठौर पर मेला
हम सब मांय ,सब है हम माय
हम है बहुरी अकेला ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
युगन युगन हम योगी !!!!
कबीर को पढ़ना और समझना दोनों ही असीम अनुभूति है।कबीर को थोड़ी और गहराई से समझने का सौभाग्य मुझे मिला।बहुत- बहुत धन्यवाद "दीपक" कबीर रूपी खजाना मुझे भेजने के लिए।किताब पढ़ते समय मुझे "कुमार गंधर्व जी" की याद आई।आह ! कबीर का चिंतन और "पंडित कुमार गंधर्व जी" की गंभीर आवाज ,सच में एक अलग ही आध्यात्म की अनुभूति,जहाँ से आप वापस आना ना चाहो।एक तरफ जहाँ कबीर एक स्वतंत्र चिंतक, दूसरी तरफ पंडित जी बिना किसी घराने के बंधक।सच में अलौकिक मिलाप।कबीर के बारे में आप सब जानते ही होंगे।पंडित कुमार गंधर्व के बारे में भी बहुत लोग जानते होंगे।आज कुमार जी के बारे में कुछ लिख रही हूँ।मैंने पंडित जी का सिर्फ नाम सुना था 6 /7 साल पहले।तब मेरा भाई सरोद सीख (वाद्य यंत्र )सीख रहा था।कभी पंडित जी को सुना नही।भाई ने एक- आध बार इनके बारे में बताया और सुनने को कहा।पर उस वक़्त मैं किसी और दुनिया में मशगूल थी।मेरे कहने का मतलब इस तरह की संगीत की ना तो समझ थी ना ही सुनने की ईक्षा।भाई को भी कभी चिढ़ाती तो कभी लड़ती क्या ये दिन भर आ -आ बजाते रहते हो ?धीरे -धीरे चिढ़ते -चिड़ाते मुझे भी मालूम नही कब "हिंदुस्तानी क्लासिकल "अच्छा लगने लगा।हालाँकि अभी भी इसमें मेरा ज्ञान काफी कम है ,पर मैं इसे अब घंटों सुन सकती हूँ।वो क्या है ना ,दावा कड़वी होती है पर असर तो जरूर करती है।यही हाल है हिंदुस्तानी क्लासिकल का।दिमाग और मन का टॉनिक है ये।हाँ तो बात कुमार जी की,-कुमार जी का असली नाम " शिवपुत्रा सिद्दरामैया कोमकलीमठ" था।इनका जन्म 8 अप्रैल 1924 को कर्नाटक के बेलगाम डिस्ट्रिक में हुआ।गाँव का नाम सुलेभावी। 5 साल की उम्र से ही इन्होंने संगीत की शिक्षा शुरू की। 10साल की उम्र में इन्होंने पहला स्टेज परफॉर्मेन्स दिया।कहते है इनकी गायकी से प्रभावित होकर इनको "गंधर्व "की उपाधी दी गई।तभी से इनको "पंडित कुमार गंधर्व "कहा जाने लगा।सन 1947 में इनको टीवी (क्षय ) का रोग हो गया।डॉक्टर ने इनको गाने की मनाही कर दी।लगभग 6 साल की बीमारी में ,बिस्तर पर पड़े- पड़े ,इन्होंने हर तरह के संगीत को महसूस किया।चाहे वो चिड़ियाँ की चहक की हो ,हवा के झोंके हो या गली में यूँही गाते फकीरो के गीत या फिर लोक गीतों की धुन।सबको सुनते और गुनगुनाते रहते।डॉक्टर की दावा और पहली पत्नी "भानुमति" की सेवा से कुमार जी ठीक तो हो गए ,पर उनका एक फेफड़ा खराब हो गया था।अपनी इस कमजोरी को उन्होंने बेहतरीन गायन शैली के ईज़ाद से एक ताकत का रूप दिया।इसी क्रम में वो "निर्गुण भजन" की तरफ झुके।कबीर को उन्होंने अपनी बुलंद और अनोखी शैली से एक आद्यात्मिक संगीत का रूप दिया।मुझे तो अब इनकी गाई सारे निर्गुण ,लोकगीत अच्छे लगते है।चाहे वो" सुनता है गुरु ज्ञानी ,गगन में आवाज़ हो रही है हो" ,या" फिर उड़ जायेगा हंस अकेला" हो।इनसब में प्रिय मुझे " झीनी -झीनी- झीनी बीनी चादरिया ,काहे का ताना काहे की बरनी "और "युगन -युगन हम योगी" है।युगन -युगन की कुछ लाइनें -
युगन युगन हम योगी
अवधूता युगन युगन हम योगी
आवे ना जाये ,मिटे ना कबहूं
सब्द अनाहत योगी ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
सब ही ठौर जमात हमारी ,सब ही ठौर पर मेला
हम सब मांय ,सब है हम माय
हम है बहुरी अकेला ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
मतलब - हे !अवधूत (अदृश्य परमात्मा ,ओमकार ,योगी ) हम तो युगों -युगों से योगी है। ना मै आया हूँ ना मै मिटा (नष्ट )हुआ हूँ ,मै कभी ना खत्म होने वाले ध्वनि या संगीत का आनंद ले रहा हूँ ,मै तो सदा से योगी हूँ। हर तरफ मेरे ही समुदाय के मेरे ही लोग है ,मै सबसे मिलता हूँ ,मै सबमे हूँ और सब मुझमे ,फिर भी मै अकेला हूँ।हे ! अजान्य शक्ति मै तो युगों -युगों से योगी हूँ।
युगन युगन हम योगी
अवधूता युगन युगन हम योगी
आवे ना जाये ,मिटे ना कबहूं
सब्द अनाहत योगी ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
सब ही ठौर जमात हमारी ,सब ही ठौर पर मेला
हम सब मांय ,सब है हम माय
हम है बहुरी अकेला ,अवधूता युगन युगन हम योगी।
Wednesday, 17 August 2016
KHATTI-MITHI: लवली -चुलबुल स्पेशल !!!!
KHATTI-MITHI: लवली -चुलबुल स्पेशल !!!!: भाई जब आपसे छोटा हो ,तो उससे बड़ी खुशी कोई और हो ही नही सकती।वही भाई जब आपसे छोटा हो ,और लंबाई में बड़ा तो मन दू कैसा तो हो जाता है।उसपे जले ...
लवली -चुलबुल स्पेशल !!!!
भाई जब आपसे छोटा हो ,तो उससे बड़ी खुशी कोई और हो ही नही सकती।वही भाई जब आपसे छोटा हो ,और लंबाई में बड़ा तो मन दू कैसा तो हो जाता है।उसपे जले पर नमक तब गिरता है ,जब कोई पड़ोसी, सगे -संबंधी या आपके दोस्त ये बोल दे कि, अरे चुलबुल (मेरा भाई ) तो लवली से भी सुन्दर और गोरा है।साला ये गोरा रंग कब तक हमारे समाज में घुसा रहेगा समझ नही आता।ज़ज्बातो का जुल्म तब और बढ़ जाता है ,जब आपसे छोटा भाई आपसे ज्यादा ज्ञानी हो जाये।कभी बात -चीत के दौरान कुछ ऐसे टॉपिक आ गये जिसके बारे में आप नही जानते और आपका छुटकू भाई आपको उसको बारे में बताये।फिर आग तो तब लगती है, जब वो आपसे कहता हो -रहने दो बहिन तुम नही समझोगी।भगवान कसम बॉडी में इतने सारे केमिकल रिएक्शन एक साथ शुरू हो जाते है कि, पूछो मत।बताओ हमसे बाद में पैदा हुआ और हमें ही ज्ञान दे रहा है।हम ना होते तो अटके रहते भगवान के पास अबतक।पर ये बात उन्हें समझाए कौन ? खैर ज्ञान कही से भी मिले ले लेना चाहिए।भाई है उसे भी माफ़ करते रहना चाहिए।वैसे छोटे भाई होने के कई फायदे भी है।जीतना चाहो काम करवा लो ,रौब दिखा लो ,मार -पीट लो बेचारे सब सहन करते है।साथ में बिना वजह आपकी गलती की सजा भी वही भुगतते है।मौका राखी का है ,और ईसपर मुझे अपने बचपन की एक बहुत ही मज़ेदार घटना याद आ रही है।हुआ यूँ था ,उन दिनों टीवी पर रामायण -महाभारत का बोल -बाला था।एक या दो रात पहले रामायण में भरत का राम से मिलन वाला एपिसोड दिखाया गया।जिसमे राम के बनवास के वक़्त भरत राम से मिलने जाते है।राम से वापस अयोध्या चलने को कहते है ,पर राम पिता की आज्ञा मान नही जाने का निर्णय लेते है।राम के ना आने पर भरत दुखी हो , राम का खड़ाऊ (लकड़ी का चप्पल ) ले कर वापस अयोध्या चले आते है।गौर करने की बात है कि, भरत खड़ाऊ अपने सिर पर रख के लाते है।बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ- राम भक्त ले चला रे राम की निशानी एपिसोड खत्म हो जाता है।जो लोग रामायण देखने हमारे घर आये थे ,रो- गा के चले गए।हमलोग भी सो गए।अगले दिन मोर्निग स्कूल की वजह से हमलोग घर जल्दी आ गये।गर्मियों के दिन थे।स्कूल मोर्निग में होते थे।पुरे दिन हमलोगो की मौज होती थी।माँ भी ऑफिस में होती।हम दोनों भाई -बहन खूब उधम मचाते।आज की दोपहर को हमलोग सोच रहे थे कि ,आज क्या किया जाए ? भाई को आडिया आया कि रामायण में जो एपीसोड देखा था ,वही किया जाए।मैंने कहा चलो ठीक है ,पर राम मै बनूँगी।भाई बोला ऐसा क्यों ? मैंने कहा क्योकि मै बड़ी हूँ तुमसे और राम भरत से बड़े थे।मेरे ईस तर्क से भाई भरत बनने को तैयार हो गया।मैंने भाई को बोला पर हमारे पास खड़ाऊ तो है ही नही।भाई बोला कोई बात नही ,मै तुम्हारे चप्पल को ही खड़ाऊ बना लूँगा।मै राम के रोल में आराम से कुर्सी पर बैठ गई।भाई भरत की एक्टिंग करने लगा।अब संयोग देखिये ,जब भाई को पीटना होता था ,बेचारा कैसे भी पीट ही जाता था।भाई भरत के ऐक्टिंग में डूबे ,मेरे चप्पल को सिर पर रख के गोल -गोल घूम रहे थे।मतलब जाने की ऐक्टिंग कर रहे थे।तभी माता जी का आगमन हो गया।माँ ने मुझे तो कुर्सी पर बैठे देखा ,पर बेचारा भाई फँस गया।फिर क्या था ,माँ ने बेचारे को बाली की तरह धोया।माँ उसे डांट रही थी कि,चप्पल क्या सिर पर रखने की चीज़ है, और वो बेचारा रोता हुआ बोला माँ वो तो दीदी कि ,फिर एक थप्पड़।दीदी क्या ? देखो तो वो कैसे अच्छे बच्चे की तरह कुर्सी पर बैठी है और तुम।उसके बाद फिर कभी भाई ने रामायण का कोई ऐपिसोड नही खेला।आह ! वो भी क्या दिन थे।सच में चुलबुल तुम ना होते तो मेरी जिंदगी बेरंग होती।कितने सुख -दुख हमने साथ में जीए है।एक -दूसरे के साथ कैसे वक़्त निकल जाता मालूम ही नही चलता।मेरी वजह से कई बार तुम परेशानी में पड़े पर मानना पड़ेगा तुम्हारी हिम्मत को :) मेरे भाई ,दोस्त ,कुक ,डॉक्टर सब तुम्ही थे और भी हो।आज भी जब खिचड़ी पकाती हूँ या जब बीमार पड़ती हूँ ,तुम बहुत याद आते हो।वैसे तो भगवान सब बहनों को प्यार करने वाला भाई देता है ,पर उसकी मुझपे थोड़ी कृपा ज्यादा है।मै भगवान से हमेशा यही प्रार्थना करती हूँ कि ,अगर वो किसी लवली के जीवन में पिता का सुख नही दे सकता तो उसे एक चुलबुल जैसा भाई जरूर दे।एक पिता ,भाई की जगह कभी नही ले सकता ,पर तुमने एक भाई के साथ पिता का भी हर रोल बहुत अच्छे ढँग से निभाया है ,और मजेदार बात ये रही की ईस रोल के लिए तुम्हे माँ से मार भी नही पड़ी है :)
*इस बार भी राखी पर तुम्हारे साथ नही हूँ ,पर ये जान लो जहाँ तुम वहाँ मैं।चुलबुल के बिना लवली पूरी हो ही नही सकती।क्या कहूँ अब ,बस समझ लो -मैं यहाँ तू वहाँ जिंदगी है कहाँ ? अच्छा तुम्हे याद है ,जब मै पुणे में थी और मेरी राखी तुम्हे दो दिन बाद मिली थी।तुम दो दिन बाद राखी बांध कर घूम रहे थे। जब लोगो ने पूछा, तब तुमने कहा था -मेरी दीदी की राखी आज आई है।मेरे लिए तो आज ही रक्षा बंधन है।हमेशा इसी बात पर कायम रहना।जब भी मिलेंगे तभी हमारी राखी होगी।मै तुम्हे आज के दिन राखी बांध पाऊँ या नही पर मेरा आशीर्वाद, प्यार साथ में तकरार हमेशा हमेशा मेरे सोनू ,कोयले कमीने के साथ रहेगा।चल यही बात पर तोर गीत
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ना ये चाँद होगा ना तारे रहेंगे ,मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे
बिछड़ कर चले जाये तुमसे कही ,तो ये ना समझना मुहब्बत नही
जहां भी रहें हम तुम्हारे रहेंगे
ना ये चाँद होगा ना तारे रहेंगे मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे।
*इस बार भी राखी पर तुम्हारे साथ नही हूँ ,पर ये जान लो जहाँ तुम वहाँ मैं।चुलबुल के बिना लवली पूरी हो ही नही सकती।क्या कहूँ अब ,बस समझ लो -मैं यहाँ तू वहाँ जिंदगी है कहाँ ? अच्छा तुम्हे याद है ,जब मै पुणे में थी और मेरी राखी तुम्हे दो दिन बाद मिली थी।तुम दो दिन बाद राखी बांध कर घूम रहे थे। जब लोगो ने पूछा, तब तुमने कहा था -मेरी दीदी की राखी आज आई है।मेरे लिए तो आज ही रक्षा बंधन है।हमेशा इसी बात पर कायम रहना।जब भी मिलेंगे तभी हमारी राखी होगी।मै तुम्हे आज के दिन राखी बांध पाऊँ या नही पर मेरा आशीर्वाद, प्यार साथ में तकरार हमेशा हमेशा मेरे सोनू ,कोयले कमीने के साथ रहेगा।चल यही बात पर तोर गीत
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ना ये चाँद होगा ना तारे रहेंगे ,मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे
बिछड़ कर चले जाये तुमसे कही ,तो ये ना समझना मुहब्बत नही
जहां भी रहें हम तुम्हारे रहेंगे
ना ये चाँद होगा ना तारे रहेंगे मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे।
Wednesday, 10 August 2016
KHATTI-MITHI: प्रेम से तपस्या तक !!!
KHATTI-MITHI: प्रेम से तपस्या तक !!!: स्टेज पर एक दिव्य ज्योति चमक रही है।एक तरफ एक एक बरगद के पेड़ के नीचे एक तपस्वी बैठा है।दूसरी तरफ उसके सामने एक कन्या खड़ी है।उस कन्या का नाम...
प्रेम से तपस्या तक !!!
स्टेज पर एक दिव्य ज्योति चमक रही है।एक तरफ एक एक बरगद के पेड़ के नीचे एक तपस्वी बैठा है।दूसरी तरफ उसके सामने एक कन्या खड़ी है।उस कन्या का नाम ज्योति है।ज्योति के ठीक पीछे एक पुरुष खड़ा है। जिसका नाम प्रकाश है।प्रकाश ,ज्योति का पति है।वही तपस्वी आज एक जोगी है पर ,कभी उसका नाम तेज हुआ करता था।अब नाटक कुछ यूँ आगे चलता है।
ज्योति :- अरे तेज तुम ? मैं ज्योति,पहचान मुझे ?
तपस्वी :- ज्योति तुम।तुम इतने सालों बाद ?
ज्योति :- मुझे तो लगा तुम मुझे पहचान ही नही पाओगे।मैंने तुम्हारे बारे में सालो पहले सुना था कि , तुम संन्यासी हो गए।मुझे तो यकीन ही नही हुआ।कई तरह के लोग कई तरह की बाते बताते ,तुम्हारे संन्यास को लेकर।कई तरह के सवाल है ,मेरे मन में।आज मिले हो तुम।अब तुम ही बता दो सचाई क्या थी ?
तपस्वी :-सब कुछ अचानक तो नही हुआ ज्योति।मेरे मन में आध्यात्म के बीज तो पहले से ही थे।बस उसको जाग्रित होने में वक़्त लग गया।हर चीज़ का एक निश्चित समय होता है।आध्यत्म से जुड़ने का सबसे बड़ा कारण मेरा एक बार मृत्यु से बच जाना भी है।बाद में चीज़े खुद बखुद होती चली गई।तुम्हे याद है -एक समय था जब मै तुम्हारे प्रेम में था।मुझे हर जगह- हर वक़्त तुम्ही दिखाई देती थी।
ज्योति :- हाँ तेज मुझे याद है ,पर उस वक़्त मै तुम्हारे प्रेम को समझ नही पाई थी।मेरे भी अपने कई कारण थे।
तपस्वी :- ज्योति तुमने बिल्कुल सही निर्णय लिया था।वो समय ही ऐसा था।किसी को दोष नही दे सकते।वैसे तुम्हे मालूम है ,मैंने तुम्हारे लिए ऊपहार भी लिए थे।कविताये भी लिखी थी ,पर कभी ऊन चीज़ो को दे नही पाया तुम्हे।तुम मेरे प्रेम आग्रह से रुठ कर ,मुझसे सदा के लिए दूर हो गई।
ज्योति :- हाँ मुझे याद है।मुझे याद है कि ,तुमने माफी भी माँगी थी।पर मेरा कठोर हृदय कहो या लोक -लाज का भय जो मैं तुम्हे बिना बताये दूर चली गई।
तपस्वी :- उसके कुछ सालो बाद मै एक धर्मिक सम्मलेन में गया।वहाँ मुझे आत्मिक सुख मिला।तब मैंने सोचा जीवन के कुछ साल आध्यत्म को भी दे कर देखता हूँ।अच्छा नही लगा तो वापस मुड़ जाऊँगा।पर सच मानो ये मेरा निर्णय जीवन का सबसे सुखद निर्णय रहा।मै पूरी तरह से संतुस्ट हूँ।मुझे किसी बात का अफसोस नही।
ज्योति :- तुम्हे मालूम है तेज -मै कई बार ऐसा सोचती थी कि कही ,तुम्हारे जोगी बनने के पीछे कारणों में मै एक तो ना थी।फिर मै आत्मग्लानि से भर जाती।कई बार प्रकाश से भी मैंने ईस बारे में चर्चा की है।प्रकाश मजाक में कहते ज्योति से ही तो तेज निकलता है।फिर देखते कि मैं उदास हो गई ,तो कहते -ऐसा बिल्कुल ना सोचो।संन्यास के पीछे कई कारण हो सकते है।
तपस्वी :-ये बहुत अच्छा है।पति -पत्नी में पारदर्शिता हो तो जीवन सुखी रहता है।एक बात और जीवन में आध्याम हो तो मन शांत रहता है।तुम भी ज्योति कभी समय मिले तो थोड़ी साधना किया करो।लाभ ही होगा।
ज्योति :-हँसते हुए -मै अपने जीवन में सुखी हूँ तेज।मुझे और ज्यादा की कामना नही।आज यूँ ही गुजरते हुए यहाँ से तुम दिख गए।मै कितनी खुश हूँ तुमसे मिल कर बता नही सकती।
तपस्वी :- मैंने तुम्हे एक बार ढूँढने की कोशिश की थी।तुम मुझे मिली भी थी।देखा तो तुम अपने पति के साथ दूर कही जा रही थी।
ज्योति :- ओह! ,तो अरे पागल मुझे आवाज क्यों नही दी ? माफ़ करना मै क्या तुमसे ईस तरह बात कर सकती हूँ ?
तपस्वी :- तुम जैसे चाहो बात कर सकती हो।मैंने देखा कि तुम बहुत दूर थी।वहाँ तक मेरी आवाज नही जाती।इसलिए मै वापस आ गया।
ज्योति :- हम्म ! मेरे पास तो तुम्हारी खबर जानने का कोई साधन ही ना था ,फिर मेरी अपनी गृहस्ती भी है।
तपस्वी :- मेरा ठिकाना तो पिछले 14 सालो से बदला ही नही।
ज्योति :-(ये सुनते ही ,रोते हुए )-आह ! तेज, मैंने कभी ये जानने की कोशिश ही नही की।छोड़ो तुम खुश हो आपने जीवन में ,मुझे संतोष हो गया।
तपस्वी :- चलो तुम्हारा मन हल्का तो हो गया।हाँ सुनो एक बात और हमारे कुछ नियम है ,जिसके तहत हमलोग किसी महिला या कन्या से ज्यादा बात नही कर सकते ,मिल -जुल नही सकते।इसलिए मै अब चलता हूँ।
भगवान् का आशिर्वाद बना रहे तुम पर।
स्टेज से तपस्वी जाने लगता है ,तभी प्रकाश ,ज्योति को कहता है -
ज्योति ये तुम्हारा सच्चा प्रेमी था।आह ! तुम्हे नही लगा कही ना कही तुम तेज के अन्तर्मन में थी।तभी तो वो तुम्हे ढूँढ़ रहा था।पिछले कई सालो से उसने अपना ठिकाना भी नही बदला।जो भी हो शायद उसकी नियति यही थी।वो आध्यत्म में खुश है ,और मै तुम्हारे साथ।शायद मेरा प्रेम उसके तुलना में कई गुना ज्यादा है ,इसलिए आज तुम मेरे साथ हो।
ज्योति :- हाँ सही कह रहे हो प्रकाश।पर तुमने कुछ नए प्रश्न तो जरूर डाल दिए मेरे मन में पर मै अब इन प्रश्नों के पीछे नही भागने वाली।मुझे बस इस बात की ख़ुशी है कि ,तेज अपने अपनाये मार्ग पर खुश है।मै तुम्हारे साथ सम्पूर्ण हूँ।
प्रकाश और ज्योति, तेज जिधर गया उस दिशा में देखते है।स्टेज पर रौशनी फैल जाती है।सामने दर्शको की ताली की गड़गड़ाहट गूँज रही है।
Thursday, 28 July 2016
KHATTI-MITHI: संवेदना की देवी -महाश्वेता जी !!!
KHATTI-MITHI: संवेदना की देवी -महाश्वेता जी !!!: आप किसलिए आई हैं यहाँ ? मैं ब्रती चैटर्जी की माँ।मुझे उससे मिलना है।कुछ पन्नो देख कर पुलिस वाला कहता है -लाश "नंबर 1084" के पास ...
संवेदना की देवी -महाश्वेता जी !!!
आप किसलिए आई हैं यहाँ ? मैं ब्रती चैटर्जी की माँ।मुझे उससे मिलना है।कुछ पन्नो देख कर पुलिस वाला कहता है -लाश "नंबर 1084" के पास ले जाओ।आह !उस वक़्त उस माँ की पथराई आँखे ,कैसे अपने मृत बेटे को देखती है और कहती है -हाँ ये मेरा बेटा है।मैं बात कर रही हूँ -"हजार चौरासी की माँ", फिल्म की।आज से 4 साल पहले जब मेरे भाई ने मुझे ये फिल्म देखने को कही थी।मै इसके शीर्षक को लेकर बहुत तरह के कयास लगा रही थी।पर सोचा ना था ,ईतना संवेदन पूर्ण ये शीर्षक होगा।ईस फिल्म की कई बाते थी ,जो आपको सोचने पर ,रोने पर मजबूर कर देंगी।पर मेरी जहन में सिर्फ तीन बाते घर कर गई थी।पहला तो ब्रती की लाश को लेने उसकी माँ का जाना।दूसरा उसकी माँ का उसकी बहन को समझाना कि - ब्रती खुद में विश्वास करता था।बाहरी ताकतों(भगवान ,साधु -संतो ) पर नही।तीसरा जो मुझे समझ आया कि- नक्सलाईट लोगो के पास एक लीडरशीप की कमी थी।ज्यादातर ब्रती के दोस्त भटके हुए थे ,इमोशनल थे।आम आदमी तक उनकी पहुँच ही नही थी।जो भी हो पर फिल्म समाज पर चोट कर रही थी।कई बार ऐसा लगता है कि,क्या जो हम न्यूज़ में पढ़ते या फिल्मो में देखते है सच में ही नक्सलियों की जिंदगी ऐसी होगी ? इस साफ -सुथरे समाज के कितने चेहरे है भाई ? कोई ब्रती बन भी जाए पर हज़ार चौरासी की माँ बनना कोई आसान बात नही।आज फिर से ईस फिल्म का ख़्याल "महाश्वेता देवी " जी की वजह से आया।महाश्वेता जी ही ऐसा सोच और लिख सकती थी। 23 जुलाई 2016 को वो हमलोग को छोड़ कर चली गई।पर माफ़ कीजिये मेरा ये कहना सिर्फ व्यावहारिक भर है।मुझे ऐसा लगता है, ऐसे लोग हमेशा जीवित रहते है।हमारी सोच में,हमारी प्रेरणा के रूप में।महाश्वेता जी एक लेखिका के साथ समाज सेविका भी थी।उन्होंने कहा था -उनके लिखने की प्रेरणा शोषित और दबे हुए लोग है।जो ईतना सताने के बाद भी समाज में अपना अधिकार ना पा सके।मुझे दुःख है कि, मैंने उनकी एक भी किताब नही पढ़ी।हाँ एक दो फिल्मो(रुदाली ,संग्राम ) के माध्यम से या गाहे -बगाहे न्यूज़ या भाई से उनके बारे में सुना जरूर है।आह ! कितनी करुणा ,रोष और बदलाव की भावना से भरी थी महाश्वेता जी।आप जैसे लोग जहाँ भी रहे हमें आशीर्वाद देते रहे ,सोचने -समझने की ताकत देते रहे।आप सदा हमारे बीच रहेंगी।आप के ही शब्दो में भारत जैसा भी है ,आखिर हमारा है।
Saturday, 23 July 2016
KHATTI-MITHI: आतंकवादी सपने और मै !!!
KHATTI-MITHI: आतंकवादी सपने और मै !!!: आलसी तो मैं शुरू से रही इसमें कोई नई बात नहीं थी मेरे लिए।पर इस बार ब्लॉग की देरी की वजह मेरा दिमागी रूप से आलसी हो जाना था।इसी बीच एक दो द...
आतंकवादी सपने और मै !!!
आलसी तो मैं शुरू से रही इसमें कोई नई बात नहीं थी मेरे लिए।पर इस बार ब्लॉग की देरी की वजह मेरा दिमागी रूप से आलसी हो जाना था।इसी बीच एक दो दोस्तों का मसेज भी आया था कि, तपस्या खट्टी -मीठी क्यों सुना पड़ा है ? शतेश ने भी टोका आजकल लिख नहीं रही हो?मैंने कहा शुभ्रांशु जी तुम तो पढ़ते नहीं मेरा ब्लॉग ,नोटिस कब कर लिया।वो बोले कमेंट नहीं करता इसका मतलब ये नहीं कि पढता नहीं जानेमन।तुम लिखती रहा करो।आज का ब्लॉग मेरी दिमागी परेशानी से जुड़ा है।मैं आपको पहले ही बता दूँ ,मुझे ना तो कभी डिप्रेशन की बीमारी हुई ना अभी तक पागल हुई हूँ और ना कभी नींद की कमी हुई।निद्रा माता कि कृपा है मुझ पर।जब चाहूँ चैन की नींद सो सकती हूँ।पर इन दिनों कुछ अजीब हो रहा था मेरे साथ।मै सोती तो ठीक ही थी ,पर अचानक डर के जग जाती थी।होता यूँ था ,मेरे सपने अब प्यार ,ख़ुशी ,किताबे या घूमने-फिरने तक नहीं रहे।इनपर भी आतंकवादी हमले शुरू हो गए थे।कहने का मतलब ये हुआ ,अब सपने में खून -खराबा देखने लगी था।सपने में मै लोगो से लड़ रही होती या फिर जान बचा के भाग रही होती।हर बार मै बच तो जाती ,पर मेरे शरीर का कोई अभिन्य अंग मेरे साथ ना होता।एक अपाहिज की जिदंगी ,और मै घबरा के जग जाती।पता नहीं मेरा मन इतना विचलीत क्यों था ?मैंने अपनी परेशानी शतेश को बताई।शतेश बोले अरे डरो मत मेरी शेरनी।कितनी बार कहा है रात को न्यूज़ पढ़ के सोना बंद करो।ऐसा भी होता है कि ,हम जो सोचते है वही हमारे सपने का हिस्सा बन जाता है।मैंने भी सोचा सही ही कह रहे है शतेश।इन दिनों कितना कुछ घट रहा है विश्व में।कभी बांग्लादेश ,कभी कश्मीर ,तो कभी फ़्रांस यहाँ तक की जहाँ हमलोग रहते है टेक्सास (डलास )में भी रँग भेद के कारण गोलीबारी और मौत।डरावने सपनो का सिलसिला लगभग रोज ही चल रहा था,पर एक रात तो हद ही हो गई।मैं डर के जगी और काफी देर तक सो नहीं पाई।अगले दिन मै सुबह जग गई थी।ये शतेश के लिए एक शॉक जैसा था।मुझसे पूछे -तपस्या सब ठीक है ना ? आज इतनी सुबह क्यों जग गई ? मुझे मालूम था कि ,आज शतेश के ऑफिस में इम्पोर्टेन्ट मीटिंग है।मैंने इस वजह से ज्यादा कुछ बताया नहीं।बस कहा -क्या तुम घर से मीटिंग नहीं कंडक्ट कर सकते ? आज वर्क फ्रॉम होम कर लेते।शतेश बोले -कोई परेशानी है क्या ,तो प्लीज बताओ।कुछ ज्यादा जरुरी है तो छुट्टी ही ले लूँगा।मैं दूध गरम करते हुए सोच रही थी कि ,अगर मै सपने की वजह से ऑफिस जाने से रोक रही हूँ ,तो ये हँस पड़ेंगे।मैंने कहा नहीं बस ऐसे ही कह रही थी।आप जाओ ऑफिस।शतेश के ऑफिस जाने के बाद बार -बार मेरे दिमाग में वही बेकार ,घटिया डरवाना सपना घूम रहा था।मेरा मन खूब रोने को कर रहा था।मैंने भाई को कॉल लगाया।पर शायद उसके गाँव में होने की वजह से नेटवर्क प्रॉब्लम आ रही थी।मैंने सोचा अच्छा ही हुआ ,उससे बात नहीं हुई।वरना वो और परेशान हो जाता।हमेशा की तरह ज्ञान देता।बहिन ये सब बेकार की बात है।डरो मत मेरी शेरनी का बच्चा।फिर मैंने अपने एक दोस्त को कॉल लगाया।वहाँ भी रिंग होके रह गया।मुझसे रहा नहीं गया।मैंने सोचा माँ या सासू माँ से ही बात कर लेती हूँ।मन कुछ हल्का हो जायेगा।मुझे मालूम है ,ये मेरी माँ के शाम की पूजा का टाइम है।कॉल से पूजा डिस्टर्ब होगी।मैंने सासू माँ को कॉल लगाया।उनसे बात करते वक़्त मै अपने आँसू रोकने की पूरी कोशिश कर रही थी।पर वो तो माँ है।बच्चों की तकलीफ़ पहली आवाज़ में ही समझ जाती है।उनका पूछना ही था कि ,तुम ठीक तो हो ना और मै रो पड़ी।ईतना रोई कि सासू माँ का भी गाला भर गया।मुझे वो हर तरह से समझाने लगी।कुछ नहीं होगा तुम बेकार डर रही हो।आप यकीन मानिये इस वक़्त भी मुझे वो याद रुला रही है।सासू माँ मेरी बहुत समझदार है ,पर कभी -कभार थोड़ी सुपरस्टिशउस चीज़े मानने लगती है।फ़ोन रखने के पहले वो बोली अच्छा सुनो -घर में धुप -अगरबत्ती रोज जलाया करो और एक हनुमान जी की तस्वीर घर में लगा लो।साथ ही कुछ दिन कोई लोहे की चीज़ अपने तकिये के नीचे रख कर सोया करो।मैंने उनको हाँ बोल के फ़ोन रख दिया।उधर शायद टेलीपैथी ने काम किया और मेरी माँ का फ़ोन आ गया।बोली लवली सब ठीक है ना ? मेरा मन तुमसे बात करने को कर रहा था।मै रो -धो तो पहले ही चुकी थी।अभी आराम से पर थोड़ी उदास होके माँ से बात कर रही थी।माँ की अलग कहानी शुरू -तुम मारपीट वाली मूवी कम देखा करो ,रोज सोने से पहले हाथ -पैर धो के सोअो ,बेड पे खाना छोड़ दो।माँ को मेरी ये आदतें मालूम है ,और वो इसी सबको लिंक कर रही थी।फिर और ज्ञान देने के बाद बोली -तुम्हे जब भी डर लगे मुझे कॉल कर लिया करो ,कभी भी किसी भी वक़्त।मेरा मन अब थोड़ा शांत था।मैंने न्यूज़ पढ़ना बंद कर दिया था।फेसबुक और व्हाट्सप्प को भी कम कर दिया।एक तो ये ये व्हाट्सप्प पे पचहत्तर ग्रुप जान के दुश्मन थे।स्कूल का ग्रुप अभी तक अपने-अपने रोमियो जूलियट की खोज में लगा है।वही कॉलेज वाले आज़ भी डिबेट के चक़्कर में पड़े हुए है।जब भी मसेज आये मतलब दंगा ,पॉलिटिक्स और आतंकवाद।कभी -कभार अगर मै हार भी मान लूँ तो नहीं ,ऐसे कैसे भाग सकती हो ? तुम तो डरपोक नहीं थी।अरे भाई मैंने मान लिया कि मैं डरपोक हूँ तो तुम्हे क्या प्रॉब्लम है? मुझे नहीं पड़ना बीते प्रेम कहनियों में या इंटेलेक्टुअल बातों में।वही दूसरी ओर फेसबुक ने तो गंध फैला रखी है।अगर भारत माता के भक्त है तो लाइक करे ,सैनिकों को लाईक करे ,भगवान् की ज्यादा लाइक आई या अल्लाह की ,बुरहान भगवान् या शैतान ,ज़ाकिर नाईक बैन और नो बैन ,आदिवासी महिलाओ से बलत्कार।प्यारे दोस्तों क्या मिलता है आपलोग को ऐसे पोस्ट से ?आप तो अपनी अधूरी जानकारी की तेजी दिखाने के चक़्कर में फेसबुक रँग देते ,पर कुछ मुझ जैसे पागल ,इमोशनल इंसान भी होते होंगे जो आपकी पोस्ट से अपनी -अपनी तरीके से आहात होते होंगे।अब आप कह सकते है तो, सोशल मीडिया यूज़ करना बंद कर दो ये तुम्हारी प्रॉब्लम है।फिर तो मै देवदास वाली स्टाइल में यही कहूँगी कि ,इस दुनियाँ में रहने के लिए मुझे क्या -क्या छोड़ना होगा ?वैसे भी ज़ालिम ,कमबख़्त टेक्नोलॉजी ऐसी चीज़ है जिससे आप कोस तो सकते है ,पर आसानी से पीछा नहीं छुड़ा सकते।ये अच्छा नहीं यही होता कि ,हम फेसबुक को अपनी तस्वीरो ,घूमने की जगहों ,खाने ,मूवी का ब्यौरा देने या कुछ अच्छी -भाईचारे , ज्ञान या हँसी मजाक वाले पोस्ट से भरे।अपनी खुद के विचारों से भरे ना की भर्मित सूचनाओं से।यदि फिर भी आप सच में अपने घृणित पोस्ट से इत्तेफाक रखते है तो -उसी दिशा में कुछ करे।मसलन पॉलिटिशन बन के पॉलिटिक्स कि गंदगी को साफ़ करे ,सैनिक बनकर देश की सेवा करे ,कश्मीर से सिम्पैथी है तो ,कुछ साल कश्मीर रह कर वहाँ की सच्चाई जानने की कोशिश करे और उस दिशा में सुधार करे।ना कि सिर्फ पोस्ट करके आराम से बैठ जाए।हमें क्या जरूरत किसी धर्म गुरु की बातों में आने की।हमारे पास ख़ूबसूरत दिमाग है ,प्यारे -प्यारे रिस्ते -नाते है ,बस उसी को फॉलो करे।मुझे तो कभी -कभी ये सोच के डर लगता है कि ,आज से 20 साल बाद जब हमारे आने वाली जेनेरशन युवा होगी तो ,उसके मन के भाव क्या होंगे ? वो डर या खौफ़ से भरे हुए या फिर घृणा ,आक्रोश और मौत की खेल में डूबे हुए।इस वक़्त बुद्ध आपकी बहुत जरूरत है।कहाँ हो बुद्ध ? दुनिया को आपकी जरूरत हैं।
Thursday, 7 July 2016
KHATTI-MITHI: फिर तुम्हारे साथ !!!
KHATTI-MITHI: फिर तुम्हारे साथ !!!: कविता चाहे जिस भाषा में हो ,आपके दिल को छू ही जाती है।ये कवी की कल्पना ही तो होती है ,कि कभी आपके हाथो में धुप मलने की ख़्वाइश हो या फिर कैन...
फिर तुम्हारे साथ !!!
कविता चाहे जिस भाषा में हो ,आपके दिल को छू ही जाती है।ये कवी की कल्पना ही तो होती है ,कि कभी आपके हाथो में धुप मलने की ख़्वाइश हो या फिर कैनवास पर रंग बनके बिछ जाने की।या फिर तुम होती तो ऐसा होता तुम होती तो वैसा होता।इन्हीं कवितओं की खूबसूरती बिखेर रहा है यू टुब।यू टुब पे आप अगर हिंदी कविता सर्च करते है ,तो आपको बहुत सी ऐसी कविताएँ मिलेंगी जो आपके दिल को छू जाएँगी।चाहे पाश की कविताएँ हो ,या रामधारी सिंह दिनकर की ,या फिर भवानीप्रसाद मिश्र हो या मानव कॉल की कविता या फिर विस्लावा सिम्ब्रोस्का की।करीब सात -आठ महीनों से मैं इन कवितओं पर कुछ लिखना चाह रही थी ,पर हर बार ही रह जाता था।इन कविताओं को बड़ी ही खूबसूरती के साथ कुछ लेखक तो कुछ नायक-नायिका ,तो कोई पत्रकार या कोई डांसर पढ़ते है।मुझे "स्वरा भाष्कर" (नायिका ) की पढ़ी हुई कविता बहुत पसंद आई थी।इन्ही कविताओं के संग्रह में मुझे "प्रेमचंद गाँधी "की कविता भी सुनने को मिली।वैसे मैंने इनकी कुछ ही कविता पढ़ी है। जिसमे "इस सिम्फोनी में ,अगर हर्फ़ों में ही है ख़ुदा और अंतिम कुछ भी नहीं होता शामिल है।बात आज की कविता की तो -ये कविता "फिर तुम्हारे साथ " कोई बहुत ही जबरदस्त कविता तो नहीं ही है ,पर सुन कर अच्छा लगा।वो क्या है ना प्रेम एक ऐसी भावना है जो सबसे ऊपर।सारे ज्ञान से ऊपर है।ये एक ऐसा टॉपिक है ,जो किसी के चेहरे पर मुस्कान ला सकता है।वैसे कविता के भाव को हर कोई अलग -अलग अपनी समझ के अनुसार अपनाता है।मसलन किसी को वही प्यारी कविता दुःख और वेदना देती है ,तो किसी को ख़ुशी।आज जिस कविता की बात कर रही हूँ ,उसका सार कुछ यूँ है -क्या होता है ,जब दो जन जो एक दूसरे के बिना रह ही नहीं पाते थे ,अचानक बहुत सालो बाद मिलते है तो -
"एक अर्से के बाद देखा तुम्हे ,तुमसे जी भर के बातें की।
दिल खोल कर आँखों में भर लिया मैंने तुम्हे ,थोड़ी कमज़ोर लग रही थी तुम
लेकिन आँखों में वही चमक कायम थी ,जो मुझे खींचती है हर बार तुम्हारी ओर।
आधा दिन गुजारा साथ हमने।
तुम्हे ख़्याल ही नहीं रहा या जानबुझ कर ,तुमने दुपट्टा नहीं डाला इस दौरान।
ना ही गीले बालों में कंघी की तुमने ,ना ख़ुशबूदार तेल लगाया
याकि तुम्हे याद था ,मुझे अच्छे लगते है तुम्हारे लम्बे केशु ऐसे ही।
एक बार फिर मैं चकित था तुम्हारे ज्ञान पर ,और तुम खुश थी मेरी कामयाबी पर।
कितनी बार हँसे हम एक साथ ,कितनी बार गूंजे हमारे ठहाके कोई हिसाब नहीं
मैं याद रखूँगा उस स्पर्श को ,जो चाय की कप के साथ दिया तुमने
उस वक़्त की सिहरन याद रहेगी मुझे,
जैसे याद है! पहली बार तुमसे गले मिलना और मारे शर्म के एकदम से छूट जाना। "
Tuesday, 28 June 2016
KHATTI-MITHI: माहे रमज़ान और सूफियों की बातें !!!!!
KHATTI-MITHI: माहे रमज़ान और सूफियों की बातें !!!!!: मेरी एक दोस्त ने मुझसे कहा -तपस्या माहे रमज़ान खत्म होने को है ,और तुमने इसपर कुछ नहीं लिखा।बात तो सही कही उसने।तो चलिए इस बार रमज़ान से जुड़ी...
माहे रमज़ान और सूफियों की बातें !!!!!
मेरी एक दोस्त ने मुझसे कहा -तपस्या माहे रमज़ान खत्म होने को है ,और तुमने इसपर कुछ नहीं लिखा।बात तो सही कही उसने।तो चलिए इस बार रमज़ान से जुड़ी कुछ यादें ,कुछ सूफ़ी संतों की बातें लिखती हूँ।जहाँ मेरा बचपन बीता उस जगह पर मुसलमानो की संख्या भी अच्छी खासी है।हिन्दू ,मुस्लिम सब मिल कर रहते थे।अब भी मिल कर रहते है ,पर वो आत्मीय लगाव थोड़ा कम हो रहा है।कुछ तो बदलते परिवेश का असर है।कुछ "बजरंग दल" की महिमा है।खैर इस पाक़ महीने में नफ़रत कि क्यों बात की जाय ,जबकि बताने को और भी प्यारी यादें है।हाँ तो जब मैं छोटी थी ,घर के बाज़ार वाले सारे काम मुझे ही करने पड़ते थे।भाई उस वक़्त छोटा था।पिता जी भी नहीं थे।शाम को मैं सब्जी ,राशन पीठ पर लाद कर लाती,रखती और खेलने भाग जाती।रमज़ान के दिनों में बाज़ार की रौनक कुछ और ही होती।कैसे दुर्गा पूजा की शुरुआत से ही मूर्ति और पंडाल में रूचि बढ़ जाती है।वैसे ही रमज़ान के महीने की शुरुआत से ही हमलोग ईद का इंतज़ार करने लगते।रोजाना की तरह बाजार से जब सब्जी लेकर घर लौट रही होती -देखती दुकानों के आगे सफाई होती रहती।कोई झाड़ू लगा रहा है ,तो कोई पानी छिड़क रहा होता।कही चटाई बिछ रहे है ,तो कही तिरपाल (बोरे से सीला चटाई जैसा ही ) लोग झुण्ड में बैठ कर भूजा ,पकौड़े ,समोसे ,सरबत आदि खा-पी रहे होते।घर आती तो कालोनी के अंसारी चाचा ने भी रोज़ा खोल लिया होता।घर पर मेरे और मेरे भाई के लिए कभी समोसा तो कभी भुजा वो भेज देते।इस तरह रमज़ान ईद तक पहुँच जाता।कई जगहों से खाने की दावत आती।जिसको लोग सेवई पीने की दावत भी कहते।मुझे सेवई के साथ एक खाश किश्म का जो हलवा बनता ,वो बड़ा पसंद था।अब तो दसन साल गुजर गए वो हलवा खाये।जाने कब नसीब हो ? इसके साथ घर पर भी कुछ लोग सेवई ,चीनी और ड्राई फ्रूट्स दे जाते।हम भाई बहन सेवई छोड़ ड्राई फ्रूट्स पे डट जाते।ड्राई फ्रूट्स उस वक़्त हमारे लिए लक्ज़री आईटम होता था।जैसे दुर्गा पूजा ,दिवाली के बीतने का दुःख होता वैसे ही रमज़ान और ईद के जाने का होता।बाजार भी फीका लगने लगता।मन उदास हो जाता।तो ऐसे में क्यों ना सूफी संतो की तरफ चले।मन को भी शांति मिलेगी।वैसे तो बचपन की यादो की वजह से मुस्लिम धर्म कभी अजनबी नहीं रहा मेरे लिए।ज्यादा रुझान भाई की सोहबत में बढ़ा।उसके साथ "निज़ामुद्दीन दरगाह या मेहरौली की दरगाह" पर जाना।उसके द्वारा लाई कुरआन को पढ़ने की कोशिश करना।पर जैसे मुझे गीता पढ़ना बोरिंग लगता वैसे ही कुरआन लगा।हो सकता है ,उस वक़्त मेरी समझ इनसबके लायक ना थी।हाँ मेरा सूफ़ी संतो में रूचि जरूर बढ़ी।इसका कारण संगीत प्रेम या इनमे छुपी प्रेम की भावनायें हो सकती है।सूफ़ी संत या चिस्ती लोग(अफ़गानिस्तान के एक शहर से ) जो भी हुए ,उनका एक ही मज़हब है -प्रेम ,त्याग ,मानवता और दया।हो सकता हो मेरा सूफ़ियों के प्रति रुझान का एक और कारण मेरा नारी मन भी हो।"निजामुद्दीन औलिया" के दरग़ाह पर जाने पर मुझे 'आमिर ख़ुसरो साहब 'के बारे में भी मालूम हुआ।पहले तो ये बता दूँ "दरग़ाह और मज़ार "एक ही है।दरग़ाह पर्शियन शब्द है ,वहीं मज़ार अरेबिक शब्द है।ऐसे तो कई सूफ़ी संतो का मज़ार है ,पर सबसे ज्यादा लोगो की तादात "ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिस्ती "के दरग़ाह पर होती है।ये राजस्थान के "अजमेर" शहर में है।मोईनुद्दीन चिस्ती को "गरीब नवाज़" भी कहते है।दूसरी बारी आती है "निज़ामुद्दीन औलिया "की।इनका मज़ार "दिल्ली "में है।फिर बात आती है 'मुंबई "स्थित "हाज़ी अली "दरगाह की।इन सब दरगाहों पर हिन्दू ,मुस्लिम सब जाते है।सबकी दुआयें मालिक क़ुबूल करते है। वही कुछ मुस्लिम रूढ़िवादी विचारधारा के लोग मज़ार या दरग़ाह पर नहीं जाते।उनका मानना है कि ,उन्हें सिर्फ अल्लाह को पूजना है।खैर सबकी अपनी विचारधारा हो सकती है।जहाँ तक मेरा विचार है ,मुझे तो यहाँ जाके अच्छा ही लगा।काफी कुछ सिखने को मिला।सूफ़ियों में कई नामीगिरामी कवि हुए। जिन्होंने अपनी कविताओं ,गीतों के जरिये प्रेम बाँटने की कोशिश की। इस तरह वो ख़ुदा को भी पा लिए और खुद को भी।निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य आमिर ख़ुसरो इन सबमे उच्चा नाम है ,एक कवि ,एक कव्वाल के तौर पर।आमिर ख़ुसरो के कुछ दोहे -*ख़ुसरो दरिया प्रेम का ,उल्टी वा की धार। जो उतरा सो डूब गया ,जो डूबा सो पार।।
*ख़ुसरो पाती प्रेम की ,बिरले बाँचे कोय।वेद ,कुरान ,पोथी पढ़े प्रेम बिना का होय।।
*ख़ुसरो सरीर सराय है ,क्योंसोवे सुख चैन। कूच नागरा साँस का ,बाजत है दिन रैन।।
ख़ुसरो ने बहुत सी कविताएँ लिखी मसलन छाप तिलक सब छीना रे ,मोसे नैना मिला के ,आज रँग है ये माँ रंग है री ,काहे को ब्याहे विदेश ,अरे लखिया बाबुल मोरे कुछ प्रमुख रचनाएँ है।
ऐसे ही एक सूफ़ी संत "मौलाना रूमी" जिनको सिर्फ रूमी भी कहते है।उन्होंने कहा है -*इश्क़ हरा देता है सबको ,मैं हारा हूँ।खारे इश्क़ से, शक़्कर सा मीठा हुआ हूँ।
*"बेवक़ूफ़ मंदिर में जाकर तो झुकते है ,मगर दिल वालो पर वो सितम करते है।
वो बस इमारत है असली हक़ीक़त नहीं है ,सरवरो (गुरु )के दिल के सिवा मस्जिद नहीं है।
वो मस्जिद जो औलिया(संत )के अंदर में है ,सभी का सजदागाह है ,खुदा उसी में है।"
वही संत 'वारिश साह" ने भी प्रेम और मानवता को ही अल्लाह का मार्ग बताया। उनकी प्रमुख कृति हीर -रांझणा है।
चाहे निज़ामुद्दीन हो ,ख़ुसरो हो ,रूमी हो ,वारिश शाह हो सबने प्रेम और त्याग से अल्लाह ,ईश्वर को पाया।हम इनकी कविताओं में "प्रेमी "भगवान या अल्लाह को समझे।वैसे किसी इंसान के प्रेम के सम्बन्ध में भी हम ये कहे तो बुरा ना होगा।आखिर ये भी तो प्रेम का एक दूसरा रूप है।क्यों ना इस बार ईद पर हमारी "ईदी' प्रेम देना और प्रेम लेना हो।हर जगह अमन चैन हो।लोगो के अंदर दया और मानवता हो।चलिए इस प्यारी सी ईदी के साथ आप सबको "माहे रमज़ान मुबारक़ हो"।आने वाला "ईद मुबारक़ हो"।
*ख़ुसरो पाती प्रेम की ,बिरले बाँचे कोय।वेद ,कुरान ,पोथी पढ़े प्रेम बिना का होय।।
*ख़ुसरो सरीर सराय है ,क्योंसोवे सुख चैन। कूच नागरा साँस का ,बाजत है दिन रैन।।
ख़ुसरो ने बहुत सी कविताएँ लिखी मसलन छाप तिलक सब छीना रे ,मोसे नैना मिला के ,आज रँग है ये माँ रंग है री ,काहे को ब्याहे विदेश ,अरे लखिया बाबुल मोरे कुछ प्रमुख रचनाएँ है।
ऐसे ही एक सूफ़ी संत "मौलाना रूमी" जिनको सिर्फ रूमी भी कहते है।उन्होंने कहा है -*इश्क़ हरा देता है सबको ,मैं हारा हूँ।खारे इश्क़ से, शक़्कर सा मीठा हुआ हूँ।
*"बेवक़ूफ़ मंदिर में जाकर तो झुकते है ,मगर दिल वालो पर वो सितम करते है।
वो बस इमारत है असली हक़ीक़त नहीं है ,सरवरो (गुरु )के दिल के सिवा मस्जिद नहीं है।
वो मस्जिद जो औलिया(संत )के अंदर में है ,सभी का सजदागाह है ,खुदा उसी में है।"
वही संत 'वारिश साह" ने भी प्रेम और मानवता को ही अल्लाह का मार्ग बताया। उनकी प्रमुख कृति हीर -रांझणा है।
चाहे निज़ामुद्दीन हो ,ख़ुसरो हो ,रूमी हो ,वारिश शाह हो सबने प्रेम और त्याग से अल्लाह ,ईश्वर को पाया।हम इनकी कविताओं में "प्रेमी "भगवान या अल्लाह को समझे।वैसे किसी इंसान के प्रेम के सम्बन्ध में भी हम ये कहे तो बुरा ना होगा।आखिर ये भी तो प्रेम का एक दूसरा रूप है।क्यों ना इस बार ईद पर हमारी "ईदी' प्रेम देना और प्रेम लेना हो।हर जगह अमन चैन हो।लोगो के अंदर दया और मानवता हो।चलिए इस प्यारी सी ईदी के साथ आप सबको "माहे रमज़ान मुबारक़ हो"।आने वाला "ईद मुबारक़ हो"।
Wednesday, 22 June 2016
KHATTI-MITHI: ग्रैंड कैनियन ,डिज्नी ,यूनिवर्सल स्टूडियो ,हॉलीवुड...
KHATTI-MITHI: ग्रैंड कैनियन ,डिज्नी ,यूनिवर्सल स्टूडियो ,हॉलीवुड...: वेगास से हमलोग ग्रैंड कैनियन को चलते है।ग्रैंड कैनियन ,वेगास से लगभग 4 से 4 :30 घंटे की दुरी पर है।अगर आपको तेज ड्राइव का शौख़ है तो ,ये सड़क...
ग्रैंड कैनियन ,डिज्नी ,यूनिवर्सल स्टूडियो ,हॉलीवुड साइन और पेसिफिक कॉस्ट !!!
वेगास से हमलोग ग्रैंड कैनियन को चलते है।ग्रैंड कैनियन ,वेगास से लगभग 4 से 4 :30 घंटे की दुरी पर है।अगर आपको तेज ड्राइव का शौख़ है तो ,ये सड़क आपके लिए ही बनी है।इस रास्ते पर कई जगह स्पीड़ लिमिट 85 माइल्स पर आवर है।आप 90 /95 की स्पीड तक गाड़ी आराम से चला सकते है।वैसे चलाने को तो आप 100 की स्पीड भी चला सकते है ,बशर्ते पुलिस ना पकड़े आपको।इस स्पीड पर पकड़े गए तो ज्यादातर चांस जेल जाने का ही है।हाँ आप लॉन्ग वीकेंड को जा रहे हो ,तो स्पेशली सावधान रहे।पुलिस कही भी छुपे हो सकते है।थोड़ा अजीब है ना ? इंडिया में चोर छुपे होते है ,यहाँ पुलिस छिपी होती है।कोई भी गलती करो, जाने कहाँ से प्रकट हो जाते है।कई बार आप भाग्यशाली हुए तो ,बच भी जाते है।जैसे की हमलोग।हमने भी 100 /110 तक थोड़ी देर गाड़ी चलाई थी।वैसे ये गलत है ,पर हमें जल्दी से ग्रैंड कैनियन पहुँचना था।वरना शाम होने पर कैनियन दिखता ही नहीं।ये भी डर था कि, पार्क ना बंद हो जाये।बाद में मालूम हुआ पार्क 24 आवर्स ओपन है।रास्ते में हमने "हुवर डैम" देखा।इस डैम का आर्किटेक , कंक्रीट आर्च -ग्रेविटी पर बना है।ये डैम कोलोराडो रीवर पर बना है।यहाँ से हमलोग नॉन स्टॉप भागते हुए ग्रैंड कैनियन पहुँचे।ग्रैंड कैनियन एक नेशनल पार्क है।यह पार्क "एरिज़ोना" स्टेट में है।इसकी एंट्री फी "25 डॉलर" पर व्हीकल है।इसको कभी "सेवन नेचुरल वंडर्स ऑफ़ द वर्ल्ड "भी माना गया है।इसकी खूबसूरती देखने के लिए ,एक तो आपको "साउथ रिम " जाना होगा ,या दूसरा "नार्थ रिम" हमलोग साउथ रिम गए थे।शाम होने को थी।ठंढ भी यहाँ वेगास की तुलना में काफी थी।हमलोग दस्ताने ,मफलर से लैस होकर घूमने निकले।यहाँ विज़िटर सेंटर के पास गाड़ी पार्क की हमने।कुछ इनफार्मेशन लिया और निकल पड़े।पार्क की तरफ से सटल चलता है ,जो आपको पार्क के इम्पोर्टेन्ट पॉइंट को घूमाता है।हमलोगो ने सटल लिया और निकल पड़े।जब हमलोग कैनियन तक पहुँचे ,सूर्य अभी भी चमक रहे थे।ये चमक सूर्य की चमकती रोशनी का सांझ की तरफ ले जाने वाला था।उस नारँगी ,पीली रौशनी में कैनियन और भी खूबसूरत और आध्यात्मिक हो गया।नजरे हट ही नहीं रही थी ,वहाँ से।पहली बार मैंने इतना सुन्दर प्रकृति का नजारा पहाड़ों में देखा था।कैनियन भी हल्के भूरे ,लाल ,तो थोड़े रामराज मिट्टी के रंग के।रामराज मिट्टी का रंग वही जो अमूमन इंडिया के हर सरकारी विभाग या क्वॉटर का होता है।ठंढ बहुत हो रही थी ,फिर भी हमलोग का वापस आने का मन नहीं हो रहा था।अँधेरा होने की कगार पर था।अंततः हमलोग को वापस आना ही पड़ा।एक तस्वीर ग्रैंड कैनियन की -
अगर आप अमेरिका में है ,आपको प्रकृति से प्रेम है ,तो आपको एक बार यहाँ जरूर जाना चाहिए।हमलोग वापस सटल से इंफॉर्मेशन सेंटर तक आये।कॉफी ,चिप्स और बर्गर टाइप कुछ लिया।खाने -पीने के बाद हमलोग वापस गाड़ी तक आये ,और होटेल के लिए निकल पड़े।पार्क तो अच्छा था ,पर रोड साइन ठीक से मेंटेन नहीं थे।जीपीएस भी पार्क में ही घुमा रहा था।हमलोग बाहर नहीं निकल पा रहे थे।ऐसे ही भटकते हमलोग एक डेड एन्ड वाले रास्ते पर पहुँच गए।अँधेरा हो रहा था ,रास्ता भी नहीं मिल रहा था।हमलोग थोड़े परेशान हो गए थे।बैक लेकर गाडी थोड़ी आगे गए तो ,कुछ कॉटेज दिखे।यहाँ विजिटर रात को रुक सकते है ,अगर उन्होंने पहले से कॉटेज की बुकिंग की है तो।कुछ लोग वॉक कर रहे थे।शतेश ने बाहर वॉक करते व्यक्ति से बाहर निकलने का रास्ता पूछा।रास्ता पूछने पर मालूम हुआ जीपीएस सही ले जा रहा है ,पर बीच में कंस्टक्शन और पेड़ गिरने से रास्ता बंद है।उसके पहले का रास्ता लेना है।हमलोग बताए हुए रास्ते को फॉलो कर रहे थे।थोड़ी दूर जाने पर हमे एग्जिट गेट दिखा।तब जाके सबने राहत की साँस ली।अगले दिन हमलोग को "लॉस एंजेलिस" जाना था।रास्ते में ही कुछ तो हमने खाया और हॉटेल पहुँच के सो गए।अगले दिन हमारी लॉस एंजलिस की यात्रा शुरू हुई।हमलोग लगभग 1 बजे तक "डीज़नी'"पहुँच गए थे।यहाँ भी गाड़ी पार्किंग के बाद इनकी सटल डिज्नी लैंड तक ले गई।पार्क की टिकेट पर पर्सन '90 /95 डॉलर 'था।ये प्राइस कम ज्यादा होते रहता है।डिपेंड करता है ,आप कितने दिन घूमने आते हो।हमलोग का एक दिन का था।अगर आपको 2 /3 दिन लगातार आना है ,तो टिकट थोड़ी सस्ती होगी।यहाँ आने से पहले ही रास्ते में हमलोग एक पंजाबी रेस्ट्रो में जम कर खा के आये थे।एक बात और मैंने देखी -यहाँ पर बहुत से रोड साइन इंग्लिश के साथ पंजाबी में लिखे हुए थे।मैं आश्चर्चकित।फिर शतेश ने बताया की हमलोग कैलिफोनिया में है।यहाँ पंजाबियों की तादात भी ज्यादा है।शायद यही वजह होगा ,दोनों भाषाओं में लिखने का।जैसा मेरा अनुभव रहा डिज्नी का उसके अनुसार बता रही हूँ -अगर आपके साथ बच्चे है, तो जरूर जाइये यहाँ।पर मुझे तो बहुत कोफ़्त हो रही थी।एक -एक राइड के लिए 1 से डेढ़ घंटा इंतज़ार करो।राइड भी सिर्फ 5 या 10 मिनट की।यहाँ गर्मी भी थी।लाइन में खड़े रहना भी मुश्किल लग रहा था।जिधर देखो बच्चे ही बच्चे।काफी भीड़ थी।भीड़ से बचने के लिए आप लॉन्ग वीकेंड पर तो कभी ना जाए।एक और चीज़ मैंने यहाँ देखी -लोग छोटे बच्चों के कमर में एक कुत्ते जैसा पट्टा बाँध रखे थे।उस पट्टे की लम्बाई ज्यादा थी।बच्चे आराम से इधर -उधर घूम रहे थे ,पट्टे का दूसरा छोर माँ या पिता के हाथ में होता।जरा भी इधर -उधर हुए लगाम खींच ली।बच्चे माता /पिता के पास आ जाते।वहीं ज्यादातर बच्चों के हाथ पर या गले में विजिटिंग कार्ड की तरह मोबईल नंबर लिखे हुए थे।ये मुझे अच्छा लगा।अगर बच्चा खो भी जाए भीड़ में तो ,सिक्योरिटी आराम से इनके पेरेंट्स को कॉल कर सकती है।ओवरआल मुझे डिज्नी ठीक -ठाक ही लगी।
मुझे ज्यादा मज़ा "यूनिवर्सल स्टूडियो" में आया। एक तो भीड़ कम ,दूसरा राइड भी अच्छे वाले।यहाँ हमलोग को खाने की तकलीफ जरूर हुई।इतना बड़ा पार्क पर वेजिटेरियन के खाने के ऑप्शन में सिर्फ पिज़्ज़ा था(3 साल पहले )।हमने पिज़्ज़ा आर्डर तो कर दिया ,पर कसम से लाइफ में इतना बेकार पिज़्ज़ा पहली बार खाया था।जैसे -तैसे कोक से पिज़्ज़ा निगल रहे थे।वही दूसरे टेबल पर एक इंडियन फैमिली पूरी ,छोले और चावल खाये जा रहे थे।वो लोग अपने साथ खाना लेकर आये थे।सच में मन ललचा गया था ,पर पिज़्ज़ा से ही संतोष करना पड़ा।मेरे साथ कोई बच्चा होता तो ,मैं पक्का उसके नाम पर एक पूरी तो माँग ही लेती :) खैर ,अगर आप वेजिटेरियन है ,तो ये ऑप्शन आपके लिए बेस्ट है।यूनिवर्सल के बाद अगले दिन हमलोग हॉलीवुड साइन देखने पहुँचे।भगवान कसम हम क्यों आये थे यहाँ ? वही हवाबाज़ी के चक़्कर में कि बहुत अच्छा है।जरूर जाना।कभी -कभी मुझे लगता है ,लोग अपनी फ्रस्टेशन निकालने को कह देते है ,जरूर जाना।साला हम क्या पागल थे जो गए ? तुम भी जाओ। एक तो वन वे पहाड़ी रास्ता ,दूसरा वहाँ हॉलीवुड साइन के सिवा कुछ भी नहीं था।साइन भी आपको काफी दूर से ही देखना पड़ता है।जब यहाँ तक आये तो इसकी भी एक तस्वीर का दीदार कर ले -
फिर भी हमेशा की तरह यहां भी कुछ चाइनीज़ और कुछ इंडियन मौजूद थे।मुझे हँसी आ रही थी कि ,अकेले हम ही नहीं बेवकूफ।इसके बाद हम 'पेसिफिक कोस्ट ड्राइव' को गए।ये सुन्दर रास्ता था।एक तरफ पहाड़ तो दूसरी तरफ समुन्दर , बीच में रास्ता।हमलोग सीनिक ब्यूटी का मज़ा लेते हुए जा रहे थे।एक बहुत ही सुन्दर व्यू दिखा।हमने गाड़ी को साइड करके कुछ फ़ोटोग्राफ़ लेने की सोची।ज्योही गाड़ी को किनारे रोका गया ,किनारे पड़े किसी तेज पत्थर की वजह से गाड़ी पंक्चर हो गई।अब क्या हो ? यहाँ के गाड़ी इंस्योरेंस वाले को कॉल किया गया।वो बोला हमारे पास आते -आते उसे एक से डेढ़ घंटा लग जायेंगा।लॉन्ग वीकेंड की छुट्टी की वजह से स्टाफ़ कम है।शतेश ने हेमत और मिस्टर देगवेकर को कहा -उसका इंतज़ार करेंगे तो हमे काफी देर हो जायेगी।फ्लाइट भी लेनी है वापसी की।मुझे टायर चेंज करने आता है ,तुमलोग हेल्प कर दो।तीनो लड़को ने मिलकर टायर चेंज किया।इधर मुझे फोटोग्राफी का टाइम मिल गया।बीच साइड होने से गर्मी भी काफी लग रही थी।शतेश तो पसीने से तर -बत्तर।उस वक्त वो मुझे सच में एक कार मेकैनिक ही लग रहे थे।मुझे दया भी आ रही थी और हँसी भी।यात्रा समाप्त हुआ।वापस हमलोग वेगास एयरपोर्ट पहुँचे ,हूस्टन की फ्लाइट के लिए।
अगर आप अमेरिका में है ,आपको प्रकृति से प्रेम है ,तो आपको एक बार यहाँ जरूर जाना चाहिए।हमलोग वापस सटल से इंफॉर्मेशन सेंटर तक आये।कॉफी ,चिप्स और बर्गर टाइप कुछ लिया।खाने -पीने के बाद हमलोग वापस गाड़ी तक आये ,और होटेल के लिए निकल पड़े।पार्क तो अच्छा था ,पर रोड साइन ठीक से मेंटेन नहीं थे।जीपीएस भी पार्क में ही घुमा रहा था।हमलोग बाहर नहीं निकल पा रहे थे।ऐसे ही भटकते हमलोग एक डेड एन्ड वाले रास्ते पर पहुँच गए।अँधेरा हो रहा था ,रास्ता भी नहीं मिल रहा था।हमलोग थोड़े परेशान हो गए थे।बैक लेकर गाडी थोड़ी आगे गए तो ,कुछ कॉटेज दिखे।यहाँ विजिटर रात को रुक सकते है ,अगर उन्होंने पहले से कॉटेज की बुकिंग की है तो।कुछ लोग वॉक कर रहे थे।शतेश ने बाहर वॉक करते व्यक्ति से बाहर निकलने का रास्ता पूछा।रास्ता पूछने पर मालूम हुआ जीपीएस सही ले जा रहा है ,पर बीच में कंस्टक्शन और पेड़ गिरने से रास्ता बंद है।उसके पहले का रास्ता लेना है।हमलोग बताए हुए रास्ते को फॉलो कर रहे थे।थोड़ी दूर जाने पर हमे एग्जिट गेट दिखा।तब जाके सबने राहत की साँस ली।अगले दिन हमलोग को "लॉस एंजेलिस" जाना था।रास्ते में ही कुछ तो हमने खाया और हॉटेल पहुँच के सो गए।अगले दिन हमारी लॉस एंजलिस की यात्रा शुरू हुई।हमलोग लगभग 1 बजे तक "डीज़नी'"पहुँच गए थे।यहाँ भी गाड़ी पार्किंग के बाद इनकी सटल डिज्नी लैंड तक ले गई।पार्क की टिकेट पर पर्सन '90 /95 डॉलर 'था।ये प्राइस कम ज्यादा होते रहता है।डिपेंड करता है ,आप कितने दिन घूमने आते हो।हमलोग का एक दिन का था।अगर आपको 2 /3 दिन लगातार आना है ,तो टिकट थोड़ी सस्ती होगी।यहाँ आने से पहले ही रास्ते में हमलोग एक पंजाबी रेस्ट्रो में जम कर खा के आये थे।एक बात और मैंने देखी -यहाँ पर बहुत से रोड साइन इंग्लिश के साथ पंजाबी में लिखे हुए थे।मैं आश्चर्चकित।फिर शतेश ने बताया की हमलोग कैलिफोनिया में है।यहाँ पंजाबियों की तादात भी ज्यादा है।शायद यही वजह होगा ,दोनों भाषाओं में लिखने का।जैसा मेरा अनुभव रहा डिज्नी का उसके अनुसार बता रही हूँ -अगर आपके साथ बच्चे है, तो जरूर जाइये यहाँ।पर मुझे तो बहुत कोफ़्त हो रही थी।एक -एक राइड के लिए 1 से डेढ़ घंटा इंतज़ार करो।राइड भी सिर्फ 5 या 10 मिनट की।यहाँ गर्मी भी थी।लाइन में खड़े रहना भी मुश्किल लग रहा था।जिधर देखो बच्चे ही बच्चे।काफी भीड़ थी।भीड़ से बचने के लिए आप लॉन्ग वीकेंड पर तो कभी ना जाए।एक और चीज़ मैंने यहाँ देखी -लोग छोटे बच्चों के कमर में एक कुत्ते जैसा पट्टा बाँध रखे थे।उस पट्टे की लम्बाई ज्यादा थी।बच्चे आराम से इधर -उधर घूम रहे थे ,पट्टे का दूसरा छोर माँ या पिता के हाथ में होता।जरा भी इधर -उधर हुए लगाम खींच ली।बच्चे माता /पिता के पास आ जाते।वहीं ज्यादातर बच्चों के हाथ पर या गले में विजिटिंग कार्ड की तरह मोबईल नंबर लिखे हुए थे।ये मुझे अच्छा लगा।अगर बच्चा खो भी जाए भीड़ में तो ,सिक्योरिटी आराम से इनके पेरेंट्स को कॉल कर सकती है।ओवरआल मुझे डिज्नी ठीक -ठाक ही लगी।
मुझे ज्यादा मज़ा "यूनिवर्सल स्टूडियो" में आया। एक तो भीड़ कम ,दूसरा राइड भी अच्छे वाले।यहाँ हमलोग को खाने की तकलीफ जरूर हुई।इतना बड़ा पार्क पर वेजिटेरियन के खाने के ऑप्शन में सिर्फ पिज़्ज़ा था(3 साल पहले )।हमने पिज़्ज़ा आर्डर तो कर दिया ,पर कसम से लाइफ में इतना बेकार पिज़्ज़ा पहली बार खाया था।जैसे -तैसे कोक से पिज़्ज़ा निगल रहे थे।वही दूसरे टेबल पर एक इंडियन फैमिली पूरी ,छोले और चावल खाये जा रहे थे।वो लोग अपने साथ खाना लेकर आये थे।सच में मन ललचा गया था ,पर पिज़्ज़ा से ही संतोष करना पड़ा।मेरे साथ कोई बच्चा होता तो ,मैं पक्का उसके नाम पर एक पूरी तो माँग ही लेती :) खैर ,अगर आप वेजिटेरियन है ,तो ये ऑप्शन आपके लिए बेस्ट है।यूनिवर्सल के बाद अगले दिन हमलोग हॉलीवुड साइन देखने पहुँचे।भगवान कसम हम क्यों आये थे यहाँ ? वही हवाबाज़ी के चक़्कर में कि बहुत अच्छा है।जरूर जाना।कभी -कभी मुझे लगता है ,लोग अपनी फ्रस्टेशन निकालने को कह देते है ,जरूर जाना।साला हम क्या पागल थे जो गए ? तुम भी जाओ। एक तो वन वे पहाड़ी रास्ता ,दूसरा वहाँ हॉलीवुड साइन के सिवा कुछ भी नहीं था।साइन भी आपको काफी दूर से ही देखना पड़ता है।जब यहाँ तक आये तो इसकी भी एक तस्वीर का दीदार कर ले -
फिर भी हमेशा की तरह यहां भी कुछ चाइनीज़ और कुछ इंडियन मौजूद थे।मुझे हँसी आ रही थी कि ,अकेले हम ही नहीं बेवकूफ।इसके बाद हम 'पेसिफिक कोस्ट ड्राइव' को गए।ये सुन्दर रास्ता था।एक तरफ पहाड़ तो दूसरी तरफ समुन्दर , बीच में रास्ता।हमलोग सीनिक ब्यूटी का मज़ा लेते हुए जा रहे थे।एक बहुत ही सुन्दर व्यू दिखा।हमने गाड़ी को साइड करके कुछ फ़ोटोग्राफ़ लेने की सोची।ज्योही गाड़ी को किनारे रोका गया ,किनारे पड़े किसी तेज पत्थर की वजह से गाड़ी पंक्चर हो गई।अब क्या हो ? यहाँ के गाड़ी इंस्योरेंस वाले को कॉल किया गया।वो बोला हमारे पास आते -आते उसे एक से डेढ़ घंटा लग जायेंगा।लॉन्ग वीकेंड की छुट्टी की वजह से स्टाफ़ कम है।शतेश ने हेमत और मिस्टर देगवेकर को कहा -उसका इंतज़ार करेंगे तो हमे काफी देर हो जायेगी।फ्लाइट भी लेनी है वापसी की।मुझे टायर चेंज करने आता है ,तुमलोग हेल्प कर दो।तीनो लड़को ने मिलकर टायर चेंज किया।इधर मुझे फोटोग्राफी का टाइम मिल गया।बीच साइड होने से गर्मी भी काफी लग रही थी।शतेश तो पसीने से तर -बत्तर।उस वक्त वो मुझे सच में एक कार मेकैनिक ही लग रहे थे।मुझे दया भी आ रही थी और हँसी भी।यात्रा समाप्त हुआ।वापस हमलोग वेगास एयरपोर्ट पहुँचे ,हूस्टन की फ्लाइट के लिए।
Thursday, 16 June 2016
KHATTI-MITHI: वेगास और मैं !!
KHATTI-MITHI: वेगास और मैं !!: घुमकडी का शौक़ तो हमेशा से रहा है मुझे।इंडिया में भाई और मैं साथ खूब घूमते थे।मेरे कंधे पर हाथ रखकर वो ऐसे चलता जैसे मैं कोई उसकी यार -दोस...
वेगास और मैं !!
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