Thursday 15 December 2022

वोमेन इन द ड्यून !!

 “वोमेन इन द ड्यून”

बहुत दिनों बाद इतनी बेहतरीन फ़िल्म देखी। यह एक जापानी फ़िल्म है जिसकी बेहतरीन सिनेमेटोग्राफ़ी, बैकग्राउंड स्कोर और पात्रों का अभिनय आपको रोमांच से भरते रहते है। 

बेहतरीन सिनेमा, सिनेमेटोग्राफ़ी, क्लोज़ अप शॉट, पात्रों का चयन आदि में कमाल के रहे आंद्रेई टारकोवस्की, इंगमार बर्गमान, सत्यजीत रे, वॉन कर वाई के बाद इस फ़िल्म के  निर्देशक “हिरोसी टेसीगहारा” ने मेरा मन मोह लिया। इस फ़िल्म का एडिटिंग भी कमाल का है। किसी भी दृश्य को ज़रूरत से ज़्यादा खिंचा नहीं गया चाहे ड्रमेटिक हो या वह लव मेकिंग ही क्यों ना हो। 

फ़िल्म की कहानी एक शिक्षक की है जिसे बालू में पाये जाने वाले कीड़ों में रुचि है। वह उन पर शोध कर रहा है। वहीं इसकी दूसरी पात्र एक महिला है जो सैंड ड्यून में रहती है। ‘सैंड ड्यून’ बालू का टीला जो आम तौर पर समुद्र के किनारे बहती हवाओं से बनता है या रेगिस्तान में हवाओं द्वारा। फ़िल्म में ड्यून समुद्र के किनारे बना है। जैसा हमारे इंडियाना में है। 

ख़ैर। फ़िल्म की कहानी आगे कुछ यूँ बढ़ती है, 

महिला अपने जीवन यापन के लिए बालू  काट कर गाँव के लोगों को देती है, जिसे बेच कर वे अपना जीवन यापन करते हैं और बदले में इसे महीनें का राशन-पानी देते हैं। महिला के पति और बच्ची इसी बालू में दब कर मर गए हैं और वह अकेली है इस बालू से घिरे घर में। ऐसे में कीड़ों की खोज में अपनी अंतिम बस को मिस कर देने वाले शिक्षक को गाँव वाले रात को उस महिला के यहाँ ठहरने का आसरा देते हैं। 

और फिर वह फँस चुका है एक जाल में। एकांत के जाल में… वह भागने की कोशिश करता है पर मुश्किल से सफल होते हुए भी वह इस रेगिस्तान से निकल नहीं पाता। वह उस महिला से कहता है, “ मैं फेल इसलिए हुआ क्योकि मुझे जियोग्राफी का ज्ञान नहीं। पर मैं एक दिन ज़रूर सफल होऊँगा।”

शिक्षक है, उसे ज्ञान है कि वह क्यों असफल हुआ। साथ ही वह कई तरीक़े से महिला को भी समझाने की कोशिश करता है कि यह जीवन भी क्या कोई जीवन है ? 

इधर महिला जानती है उसे उससे प्रेम नहीं फिर भी शरीर को शरीर की ज़रूरत है। शिक्षक भी भागने के तिड़कम के बीच प्रेम का स्वाँग कर लेता है। भागने की जुगत लगाते लगाते उसने मरू से पानी निकालने का तरीक़ा ढूँढ़ लिया। वह यह ख़बर महिला को दे इससे पहले दर्द में तड़प रही महिला दिखती है। वह प्रेग्नेंट होती है पर उसकी प्रेग्नेसी आसान नहीं। 

“ एक्‍टोपिक प्रेग्‍नेंसी” के लक्षण है। इस तरह की प्रेगनेंसी में एग गर्भाशय से नहीं जुड़ता बल्कि वह फैलोपियन ट्यूब, एब्‍डोमिनल कैविटी या गर्भाशय की ग्रीवा से जाकर जुड़ जाता है। ऐसी प्रेग्नेसी में बच्चे का विकास नहीं होता साथ ही समय पर माँ का इलाज ना हो तो जान तक पर बन आती है। 

ख़ैर, अब इससे आगे क्या होता है इसके लिए आप फ़िल्म देखें। देखें की शिक्षक भाग पाता है या नहीं ? महिला का क्या होता है… 


Friday 2 December 2022

कला !!

 कुथी जांदा चंद्र माँ, कुथी जांदे तारे हो

ओ अम्मा जी कुठी जांदे दिलां दे प्यारे हो…

एक बेटी अपनी माँ से पूछती है, “माँ ये चाँद, तारे कहाँ जाते हैं, ओ मेरी माँ दिल के क़रीब लोग कहाँ जाते हैं…” 

इंद्रधनुष सी माँ-बेटी की बातों का रहस्य वे ही जाने… वे ही जाने अपने जने का दुःख और आँसू से भरी मुस्कान का सुख… बेटी के नाज़ुक कंधों की मालिश कर धीरे-धीरे गुनगुनाती, “तुम्हें कोयल नहीं बया पक्षी बनाना है… ओ मेरी हिम्मती बेटी तुम्हें अपना घोंसला ख़ुद बनाना है… जुगनुओं की चमक और आस-नीरस की बदली में सदा मेरी बात याद रखना, “तुम मेरी बेटी हो ,तुम कहाँ जाओगी और मैं कहाँ जाऊँगी तुमसे अलग…याद रखना जब प्रसव की घड़ी हो तो उस वक़्त बिल्कुल नहीं डरना…मुझे याद करना और देखना एक साथ खिले दो इंद्रधनुष… जिसके एक सिरे पर मैं तुम्हें दूसरा सिरा थमा कर साथ रंग बिखेरने को इशारा करती हूँ…तुम और हम दो कहाँ…  दो पहाड़ जैसे मन टूट रहे है… आँखों के झरने के बीच एक बाधा है बना ली है दोनों ने कि दोनों को डर है वे एक दूसरे को डूबा ना दें… भोर की बेला और उन टूटते पहाड़ो के बीच माँ धीरे-धीरे गा रही है…विदाई हो रही है…

छुपी जांदा चन्द्रमा छुपी जांदे तारे हो,

हो धीये भला नाइयों छुपदे दिलां दे प्यारे हो,

दिस्तों आज मेरी शादी की सालगिरह नहीं फिर भी आपका आशीर्वाद सर आँखों पर। कई यादों के बीच कल मैंने “कला” फ़िल्म देखी। बड़ी उदास सी फ़िल्म है… बर्फ सी ठंढी, चुभने वाली। सोचती हूँ क्या बितती होगी उन बेटियों पर जिनकी उपेक्षा उनकी माँ ही करती है। कैसी होता होगा उस माँ का मन और उसका जीवन जो अपनी अजन्मी को मार देती है… कितना बोझ होता होगा या फिर नहीं कि उन्होंने पंडित को जन्म दिया एक बाई को नहीं… 

इस उदास फ़िल्म में सबसे सुंदर इसका संगीत और दूसरा कुछ बातें जो जानते हुए भी रिवीज़न किया जा सकता है।जिनमें से दो मुख्य ,

* वक्त सबका पलटता है बस उस वक्त तक मेहनत और धीरज से काम लेना चाहिए। 
*प्रेम ही अंत है… 


Sunday 27 November 2022

टी गार्डेन !

 नैनीताल आने से पहले हमने यह नही सोचा था कि यहाँ टी गार्डेन भी होगा। नैनी झील में नाव की सवारी के दौरान नाविक मुकेश ने ही इसके बारे में बताया था। कहा था, गोलू महाराज के मंदिर से होते हुए चाय बाग़ान चले जाना।

  गोल्जू महाराज के दर्शन के बाद शाम की चाय का लगभग वक्त हो ही आया था। हम निकल पड़े नैनीताल के भवाली में, “श्यामखेत  टी गार्डेन” की ओर। मंदिर से यह ज़्यादा दूर नही है। यहाँ पहुँच कर हमने टिकट लिया। पर पर्सन टिकट का मूल्य, 40 रुपया है। 

 यह बागान सैनिक स्कूल घोड़ाखाल की जमीन पर है। जिसे टी बोर्ड ने 30 साल के लिए लीज पर लिया हुआ है।बाग़ान 155 हेक्टेयर में फैला हुआ है पर इसका अधिकांश हिस्सा लोहे की पतली जाली द्वारा घेर दिया गया है। पर्यटन के लिए एक ही हिस्सा खुला है। यहाँ चाय की पत्तियाँ तोड़ना भी मना है। बाग़ान में एक दो स्टाफ़ घूमती रहती हैं थोड़ी बहुत जानकारी देने के साथ कॉस्ट्यूम लेने को कहती हैं। महिलाओं के एक-दो कपड़े है जिन्हें पहन कर आप तस्वीरें ले सकती हैं। पर हमने कोविड को ध्यान में रखते हुए मना कर दिया। थोड़ी देर उनसे चाय की बात की और घुस पड़े चाय के बाग़ान में। कुछ तस्वीरें ली और फिर बाग़ान में ही स्थित एक रेस्टोरेंट जा घुसे। सोचा यहाँ तक आए है तो शुद्ध चाय पिया जाए। बाग़ान में इकलौता चाय की दुकान होने से चाय की क़ीमत भी ज़्यादा थी। पर साज-सज्जा सुंदर थी। इसकी बालकनी में बैठ कर चाय बाग़ान निहारते हुए चाय पीना अच्छा लगता। और हमने चाय मँगा ली। 

सच कहूँ तो मुझे चाय बिल्कुल पसंद नही आयी। बड़ा तेज स्वाद लगा। फिर अदरक वाली चाय की बात ही कुछ और। पर मुझे छोड़ कर बाक़ी तीन लोगों को चाय ठीक ही लगी। 

चाय के साथ थोड़ी देर और बैठा जा सकता था पर जाना था कैंची धाम और रास्ता थोड़ी दूर था। हम निकल पड़े चाय के बाग़ान को विदा करते हुए।

Wednesday 23 November 2022

कैची धाम !

 पिछले पोस्ट में हमलोग, “न्याय के देवता” के दर्शन को गए थे। आज मैं आपको लेकर चलती हूँ, “कैंची धाम” नीम करौली बाबा के आश्रम। 


यहाँ चलने से पहले जान ले कि बाबा का असली नाम नीम करौली नही “लक्ष्मीनारायण शर्मा” था। वैराग के दिनों में देश भ्रमण के दौरान वे जिला फर्रुखाबाद के गाँव नीब करौरी पहुँचे। ग्रामवासी चाहते थे कि बाबा यहीं रहें। उन्होंने उनकी साधना की सुविधा के लिए जमीन के नीचे एक गुफा बना दी। बाद के बरसो में बाबा ने इस गुफा की ऊपरी भूमि पर हनुमान मन्दिर बनवाया जिसकी प्रतिष्ठा में उन्होंने एक महीने का महायज्ञ भी किया। लक्ष्मीनारायण अब, ‘लछमन दास बाबा’ बन गए थे और उनके आराध्य पवन पुत्र हनुमान थे। कुछ लोग यह भी कहते है कि वे हनुमान जी के अवतार थे या हैं।  


इस “नीब करौरी” गाँव में अठारह वर्ष रहने के बाद बाबा ने इस गाँव को हमेशा के लिए त्याग दिया पर इसके नाम को स्वय धारण कर लिया। तब से इन्हें नीम करौली बाबा कहा जाने लगा। 


कुछ लोग कहते है कि यही वह नीम करौली स्टेशन था जहाँ बाबा ने ट्रेन रोक दी थी और इसी कारण उन्हें नीम करौली कहा जाने लगा। 


सच्चाई जो हो पर अब नीम करौली बाबा भ्रमण करने के दौरान उत्तराखंड के कैंची धाम पहुँचे। 

कुमाऊं की पहाड़ियों के गर्भ में स्थित यह स्थान उन्हें इतना भाया की यही रम गए और यहाँ कैंची धाम की स्थापना की। उनका यह आश्रम अपने नाम के अनुरूप दो पहाड़ियों के बीच स्थित है जो रूप में कैंची जैसी आकार बनाती है। 


बाबा के बारे में पहली बार मैंने किसी अख़बार में पढ़ा था। इनके चमत्कार की कहानी छपी थी, कि कैसे इन्होंने ट्रेन को रोक दिया था। बाल मन बड़ा चकित हुआ और सोचने लगा कि बाबा ने यह कैसे किया होगा ? उस वक्त कई कल्पनाएँ उपजी मन में…


फिर कई सालों बाद फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग जब कैंची धाम आए तो मालूम हुआ कि यहाँ कभी एप्पल के पूर्व सीईओ स्टीव जॉब्स भी आ चुके हैं। कई और दूसरे लोग भी पर मेरी उत्सुकता उनके ट्रेन रोकने और उनके काले कम्बल में ही रही। 


अब यह नियति ही कहिए कि दिल्ली में रहते हुए भी कभी नैनीताल जाना ना हो पाया और ना जा पायी कैंची धाम। 


ख़ैर हम जब कैंची धाम पहुँचे, संध्या आरती हो रही थी। इससे पहले जिसने मंदिर में प्रवेश पा लीया उसने पा लिया था। मंदिर शाम के सात बजे तक ही खुला रहता है। हम पाँच -सात मिनट देरी से पहुँचे थे। कुछ लोग गेट से ही प्रणाम कर लौट रहे थे। तो कुछ सामने नदी को निहार रहे थे, तस्वीरें ले रहे थे।  हमें मंदिर की तरफ़ जाते देख एक व्यक्ति ने कहा, “मंदिर बंद हो गया है।”

यह सुन कर मैं निराश हो गई। भाई ने संतावना दी, “कोई बात नही यही से प्रणाम कर लो। अब क्या कर सकतें हैं।” 


गेट के पास से प्रणाम करते हुए मैं मन ही मन सोच रही थी, “ ओह, टी-गार्डेन बेकार ही गई। क्या हनुमान जी, यहाँ तक आ कर भी दर्शन नही हो पाएगा…”


तभी मंदिर का गार्ड घूमते हुए गेट तक आया। मैंने बेवक़ूफ़ सा सवाल किया, “मंदिर बंद हो गया है क्या?”


उसने कहा, “ रुको मैं साइड का गेट खोल देता हूँ पर जल्दी जल्दी भीतर घुसो वरना और लोगों को भी भीतर लेना होगा। मंदिर बंद हो चुका है।”


आप अंदाज़ा नही लगा सकते उस वक्त मेरी ख़ुशी का… मैं दौड़ कर शतेश और भाई की पत्नी को बुलाती हूँ जो प्रणाम कर मंदिर के पास वाली नदी को निहार रहे थे। भाई बग़ल की बेंच पर बैठा कुछ मनन कर रहा था, पूछ बैठा क्या हुआ ? 


जल्दी चलो जल्दी, वे हमारे लिए गेट खोल रहे हैं। तभी गार्ड ने आवाज़ दी, “जल्दी करो जल्दी” और फटाफट दर्शन करके वापस आ जाओ। हाँ भीतर फोटो लेना मना है। उसे धन्यवाद करते हुए फटाफट हम भीतर घुसे। 


कैंची धाम के प्रांगण में हनुमान जी की प्रतिमा के आगे आरती हो रही थी। थोड़ी देर रुक कर वहाँ प्रणाम किया और गार्ड के आदेशानुसार जल्दी ही नीम करौली बाबा, शिव परिवार, राम दरबार, सिद्धि माता और बाबा के ध्यान स्थान का दर्शन किया। हाँ, मंदिर में प्रवेश करते ही वैष्णो देवी का स्थान है जहाँ कीर्तन हो रहा था। 


वापस लौटते वक्त भी हमने गार्ड को कई बार थैंक यू कहा। दिन के वक्त आओ तो यहाँ समय बिता सकते हो के साथ उसने गेट बंद कर लिया। पर अब जाने कब जाना होगा… 


दो और छोटे क़िस्से इस धाम से जुड़े रह गए है जो अगली बार लिखूँगी। फ़िलहाल कैंची धाम आश्रम जाना चाहे तो नैनीताल पहुँचे। शहर से भवाली क्षेत्र में 18 किमी दूर यह स्थित है। यहाँ आप ड्राइव कर या टैक्सी कैब से जा सकते है। 


Thursday 17 November 2022

बहरूपिया !

इंसान की शक्ल में बहरूपिया तो खूब दिख जाते है पर रूप धरे बहरूपिया को देखे ज़माना हो गया। इनसे बचपन की कई यादें जुड़ी है जो बीते दिनों एक दोस्त की भेजी तस्वीर देख कर पुलग उठी। 

याद आता है बच्चों का चिल्लाना - अरे ! बहरूपिया आया है-बहरूपिया आया है… इनके पीछे बच्चों की एक छोटी सी झुंड चकित-हर्षित भाव से मंडराती रहती। ठीक से याद नही पर शायद मंगलवार और शनिवार को ये रूप धर के आते। हम बच्चों को इंतज़ार होता कि आज ये क्या रूप धरेंगे…मालूम होता ये इंसान है फिर भी भगवान का रूप धरे इन बहरूपिये को देख कई बार लोग या बच्चे हाथ जोड़ लेते। ख़ास कर बजरंग बली का रूप तो खूब जमता। 

याद आती है वह शाम जब तर-तरकारी ख़रीदने  बाज़ार जाती। कभी हनुमान तो कभी राम बन ये, एक थाली लिए दुकान-दुकान घुम रहे होते। कुछ दुकानदार इन्हें पैसे देते तो कुछ बिस्कुट-नमकीन-भुजा या मिठाई। इसके बाद बाज़ार से सटे हमारी कोलोनी का नम्बर आता। घर -घर से कभी आटा तो कभी चावल मिल जाता इन्हें। हाँ, बाद के दिनों में आटा-चावल की महंगाई पर इनकी कला हल्की पड़ी और घर के लोग भी एक-दो रुपया दे कर विदा कर देते। जाने इनके मन में उस पल क्या भाव होता पर इनके चेहरे पर उस वक्त उस धरे रुप का ही भाव होता। मर्यादापुरुषोत्तम राम थोड़ा सा आटा देख मुस्कुरा रहे होते… राम भक्त हनुमान एक सिक्का पा कर, जय श्री राम-जय श्री राम पुकार रहे होते… माता काली बच्चों के पीछे पड़ने पर क्रोध में जीभ लपलपा रही होती… दो पैरों वाला शेर बच्चों को देखते चार पैर का बन दौड़ा मारता… और फिर एक दिन उसने धरा किसी सती का रूप… लोग इसके रूप में उतनी रुचि नही दिखा रहे थे। कुछ  दुकानदार पूछ बैठे, “रे आज का बनल बाड़ीस ?”

“सती अनुसुइया”

लोग हँस रहे थे… पर बहरूपिया अपना खेल दिखाता रहा… ठेला गाड़ी खिंचता रहा… महिलाओं ने उस दिन अच्छी दान-दक्षिणा दी। यह उस फ़िल्म का असर था जो पिछले एक महीना से अभिषेक टाकीज़ में चल रहा था। 

“सती अनुसुइया”

धीरे-धीरे रूप धरने वाले बहुरुपिया मरने लगे… आम आदमी उनकी जगह लेने लगा। 




Tuesday 8 November 2022

मुझे चाँद चाहिए !!

मुझे चाँद चाहिए उन पाँच किताबों में से एक है जिन्हें मैंने बीते दिनों एक साथ पढ़ना शुरू किया था। यह किताब मैं ऑनलाइन पढ़ रही थी। 516 पृष्ठ की किताब कई बार ऑनलाइन पढ़ना आँखों को तकलीफ़ देता इस वजह से दूसरी एक किताब पेपर बैक की साथ-साथ पढ़ रही थी। 
इस किताब के लेखक सुरेंद्र वर्मा अपनी इस किताब की शुरुवात प्रसिद्ध रोमन सम्राट जूलियस सीजर यानि कालिगुला की पंक्तियों से की है। 

यह किताब वर्षा यानि सिलबिल की कहानी है जो महत्वकांक्षी और थोड़ी विद्रोही स्वभाव की है। इस किताब की सबसे अच्छी बात मुझे जो लगी वही इनके महिला पात्रों की मित्रता। हमेशा पुरुष मित्रता पर क़िस्से लिखी जाते हैं, फ़िल्में बनती है। लेकिन इस बार इस किताब के ज़रिए दिव्या और वर्षा की मित्रता पढ़ने को मिली। एक मित्र तो ऐसा होना ही चाहिए। और मुझे अफ़सोस है कि इस कदर हमराज़ मेरा कोई नही हो पाया…

इस किताब में एक और मित्रता की कड़ी है। वर्षा और शिवानी। दोनों ही हर्ष से प्रेम करतीं है और प्रेम में उसकी बातें कुछ यूँ होती है, 
वर्षा उदास-सी मुस्कुराई, 'मैंने तकिए के नीचे हर्ष की तसवीर रखी है। बिस्तर पर जाने के बाद उसी से उल्टी-सीधी बातें करती हूँ। मैंने प्रेम की निजी परिभाषा बनाई है। बताऊँ?'

'हूँ?' शिवानी कौतुक से मुस्कुराई।

'जब किसी की स्मृति नींद ला देने में समर्थ होने लगे तो इसे व्यावहारिक रूप से प्रेम कहा जा सकता है।'

शिवानी उदास चपलता से मुस्कुराई - 'और जब किसी की स्मृति से नींद उड़ने लगे तो, क्या यह भी प्रेम की उतनी ही सार्थक परिभाषा नहीं होगी...?

प्रेम में डूबी दो स्त्रियाँ, प्रेम की ही वजह से एक दूसरे की सखी बन जाती है यह जानते हुए भी कि दोनों का प्रेमी एक ही है। यह मुझे स्वीकारने में वक्त लगा पर लम्बी कहानी है तार ऐसे लेखक ने जोड़े की बाद में ठीक ही लगा। 

इस किताब में एक और अलग सी बात है। लोग वर्षा को समझने में हर्ष को भूल जाते है पर इस किताब में हर्ष ही है जो वर्षा के प्रति एकनिष्ठ है। उसे कई मौक़े मिलते है पर वह ना अपनी कला से समझौता करता है ना अपने प्रेम से। 

वही वर्षा का किरदार मानसिक रूप से मज़बूत होते हुए भी भावनात्मक रूप से कई बार कमजोर पड़ जाता है। चाहे कमल को लेकर उसका पहला प्यार हो या फिर हर्ष, हर्ष से कुछ दूरी हुई तो सिद्धार्थ से प्रेम या कह सकते है कुछ समय के लिए भावनात्मक लगाव। 

वर्षा का मानना है कि चेखव को भी कभी सम्मानित नही किया गया था और वह इस मामले में उनसे अधिक भाग्यशाली थी। इस तरह यह किताब नकारत्मकता में भी उम्मीद और साहस की तरह लिखा गया है। 




 

Tuesday 11 October 2022

हेमिंग्वे !

 



“मनुष्य ध्वस्त हो सकता है परन्तु पराजित नहीं” 

यह कथन नोबेल पुरस्कार विजेता उपन्यासकार “अर्नेस्ट हेमिंग्वे” ने अपनी किताब ‘द ओल्ड मैन एंड द सी’ में लिखा है। 

हेमिंग्वे को पहली बार मैंने इसी किताब से जाना था। उस साल साहित्य का नोबेल पुरस्कार बॉब डिलन को मिला था। मैं उनके गाने सुन रही थी और इसी बीच गूगल न्यूज़ में अर्नेस्ट हेमिंग्वे की कोई खबर दिखी। वैसे मैंने इनके बारे में थोड़ा बहुत पढ़-सुन रखा था पर कोई रुचि नही जगी थी इनमें। इनकी कोई किताब या इनकी लिखी कहानी भी नही पढ़ी थी अब तक। पर उन दिनों नोबेल के हल्ला के बीच सोचा क्यों ना इस नोबेल विजेता की कोई किताब पढ़ी जाए। अगले दिन लाईब्रेरी पहुँची और वहाँ से उठा लाई, द ओल्ड मैन एंड द सी। 

किताब में एक बूढ़े मछुआरे की निराशा, अकेलेपन, साहस के बारे में रोचक तरीक़े से लिखा गया है। 

लेकिन दोस्तों लिखना, उपदेश देना, किसी की मृत्यु की आलोचना( हेमिंग्वे के पिता ने भी आत्महत्या की थी। जिसे इन्होंने पलायनवाद कहा था) करना आसान है पर उसे खुद जीना शायद बहुत मुश्किल। तभी तो इन्होंने कहा है, 

“दुनिया सभी को तोड़ती है लेकिन टूटी हुई जगहों पर कुछ लोग ज़्यादा मज़बूत हो जातें हैं।”

“कुछ” लोग 

सभी नही। और ना ही यह कथन कहने वाला इंसान। 

हेमिंग्वे ने खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर ली। 

अर्नेस्ट मिलर हेमिंग्वे एक अमेरिकी लेखक और पत्रकार थे। उनका जन्म 21 जुलाई, 1899 को ‘इलिनोइस के ओक पार्क’ में हुआ था और 2 जुलाई, 1961 को केचम, इडाहो में उनका निधन हो गया। जीवन यात्रा इनकी मुश्किल और निराशा की कहानी है। 

मेरा संयोग यह रहा की मैं उस शहर ( इडाहो ) गई जहाँ इनकी मृत्यु हुई थी। मैं वहाँ गई जहाँ इन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय बिताया (की वेस्ट ) यहाँ भी एक बड़ा म्यूज़ियम है इनके घर का। पर मैं जा पाई सर्फ़ इनके जन्मस्थान (ओक पार्क) 

तो आज हम चलते है, हेमिंग्वे के जन्मस्थान। एक घर जहाँ उनका जन्म हुआ। आज यह जगह एक म्यूज़ियम है। यहाँ इनकी बुक रीडिंग क्लब भी है। इस घर रूपी म्यूज़ियम का टूर 45मिनट का है। दो फ़्लोर के इस घर को बहुत सुंदर तरीक़े विक्टोरियन स्टाइल से रखा गया है। एक -एक चीज़ को गाइड क्रिस बड़ा प्रेम से दिखलाते है। हेमिंग्वे के प्रति उनका प्रेम उनकी आँखों में, उनकी बातों से झलकता है। जब क्रिस इनकी मौत की बात करते हैं, एक पल को उनका गला रुंध जाता है…16 लोग उन्हें चुपचाप देख रहें होते हैं और वे कुछ रुक कर कहते है, द एंड… आप लोगों को कुछ पूछना हो तो पूछ सकते हैं। 

मैं क्या पूछती ? मैं तो बस एक इंसान में प्रेम देख रही थी… और फिर ज़्यादा कुछ पढ़ा भी तो नही इनका लिखा। 

नोट- घर रूपी म्यूज़ियम का टिकट ऑनलाइन लेने से आप अपना स्लॉट बुक कर सकते हैं। टिकट वहाँ जा कर भी ले सकते हैं पर हो सकता है आपको अगली टूर का इंतज़ार करना पड़े। टिकट का दाम 20 डॉलर पर अडल्ट है। पार्किंग रोड साइड है पर जगह मिल जाती है। और हाँ, इतना अच्छा टूर गाइड मुझे याद नही कब मिला था किसी म्यूज़ियम का। सच में यहाँ लोग किसी भी काम को बड़ा मन से करते है। 


Friday 7 October 2022

अटका आँसू !

डूबते सूरज की तरह डूब रहे मन का हाल वह दहलीज़ क्या जाने जिसके पार समुंदर ना था। बर्फ़ से भारी, जमे चार पैर घिसट रहे थे खुद को। समय की गति धीमी… इतनी धीमी की घड़ी के काटें तक रुक गए। बहती आँखों के बीच जम गया था मन और उसी बीच एक बूँद खून के आँसू…

वह एक बूँद आँसू ना जाने देह में कहाँ भटक रही है। एक बूँद जो अटक गई है मन में या कभी दिमाग़ में, गले के नाल को निचोड़ कर छाती के पर या सुखी आँखों के परदे के भीतर। 

वह कौन सी घड़ी थी जब देह का रक्त सिर्फ़ लाल रंग था… रंग जो जाने कैसे झक पीला हो गया और फिर नारंगी…अचानक नीला… हे परमेश्वर! इस नीले का रंग मिलता है आसमाँ से जो फटने के पहले गरजता है, चमकता है, बरसता है… भीतर धड़कनों की मरोड़ उठी, एक आह देह का रोआ-रोआ बन पसर गई और सब शून्य हो गया। 

थावे मंदिर !

 नवरात्रि की बिहार और बंगाल में अलग ही रौनक़ होती है। माता के आने की तैयारी इतने धूम-धाम से होती है की नव दिन कैसे बीत जाते है मालूम ही नही चलता। जब मैं छोटी थी तो इस दस दिन का कितना इंतज़ार होता। स्कूल की छुट्टी से लेकर दस दिन माता के लिए फूल तोड़ना, घर में हो रहे रामायण पाठ को कई बार सुनना। भाग कर पंडाल तक जाना और उसमें बन रही मूर्तियों को देखना। ओ, आज हाथ बन गया, अरे सिर लगा दिया है, उफ़्फ़् मुख को ढँक दिया अब सप्तमी का इंतज़ार करना होगा। 

दुर्गा की पूजा घर-घर होती। कोई मंदिर जाता तो कोई घर पर ही पूजा -पाठ कर लेता। मेरी माँ घर पर पूजा पाठ करने वाली में से है। लोग इन दिनों थावे खूब जाते। माता के दर्शन करके आते और वहाँ की बातें बताते। मैं चकित होकर इन क़िस्सों को सुनती। सोचती की काश मैं भी थावे जाती…

तो चलिए आज हम थावे चलते हैं और रास्ते में थावे वाली मईया का क़िस्सा भी सुनते चलते हैं। 

 चेरो वंश के राजा मनन सिंह खुद को मां दुर्गा का बड़ा भक्त मानते थे। एक बार उनके राज्य में अकाल पड़ गया। उसी दौर में थावे में माता रानी का एक भक्त रहषु भगत था। रहषु पर माँ की कृपा थी। वह आकल से पीड़ित लोगों को माँ के चमत्कार से निकला अन्न देता था। वह घास को बाघ से दौनी करवाता और उससे चावल निकलने लगते। यह बात राजा तक पहुंची लेकिन राजा को इस बात पर विश्वास नही हुआ। वह रहषु के विरोध में उसे ढोंगी कहने लगा और उसे अपने दरबार में बुलाया। राजा ने रहषु से कहा कि अगर ऐसा है तो तुम मां को यहां बुलाओ। इस पर रहषु भगत ने राजा से कहा, राजा, यदि मां यहां आईं तो आपका राज्य को बबार्द कर देंगी लेकिन राजा नहीं माना। 

रहषु भगत के आह्वान पर देवी मां कामाख्या से चलकर पटना और सारण के आमी होते हुए गोपालगंज के थावे पहुंची और रहषु भगत का मस्तक चिर कर अपना सिर हाथ भर दिखाया की राजा के सभी भवन गिर गए। सारे लोग मर गए और राजा भी मर गया।  

 थावे वाली देवी के मंदिर को सिद्धपीठ के तौर पर माना जाता है। यहाँ हर साल हज़ारों भक्त आते है माता के दर्शन को। पहले तो माता के मंदिर में प्रवेश आसानी से मिल जाता था पर अब भीड़ की वजह से गेट के बाहर से ही इनका दर्शन करना पड़ता है। या फिर आपका कोई जुगाड़ हो तो शुक्रवार- सोमवार को छोड़ आप भीतर जा कर माँ का दर्शन कर सकते हैं। 

यहाँ भीड़ की एक बड़ी वजह शादी-विवाह भी है। लोग यहाँ शादी-विवाह, देखा-देखौकी के लिए भी आते है। मंदिर परिसर अब पहले से काफ़ी संयोजित ढंग से बन गया है। कभी बिहार जाए तो एक बार माता के दर्शन को ज़रूर जाए। यहाँ का प्रसिद्ध पीडिकिया खाए और पेड़ों से घिरे तालाब के किनारे कुछ पल बैठे। साथ ही एक छोटा पार्क भी है पर बिहार के पार्क के बारे क्या ही कहना…



Monday 3 October 2022

गढ़देवी मईया !

भारत देश सच में चमत्कारों और क़िस्सों का देश है। आज अष्टमी के दिन माता गौरी की पूजा के बाद कुछ कथाएँ याद आई और एक रोचक बात भी। 

आपने सुना होगा या पढ़ा होगा, राजा दक्ष प्रजापति ने एक यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उस यज्ञ मे बिना बुलाये उनकी पुत्री सती भी अपने पति से जिद्द करके वहाँ पहुंची, लेकिन वहाँ अपने पति भगवान शिव का कहीं स्थान नहीं देखकर, वह यह अपमान सहन नहीं कर पाई और यज्ञशाला के हवन कुंड में कूदकर अपने प्राणों की आहुति दे दी। 

इसके बाद वियोगी-क्रोधित महादेव, सती के शव को कंधे पर उठाकर तांडव करने लगे। उनका यह रौद्र रूप देख समस्त ब्रह्मांड भयभीत हो गया। प्रलय की स्तिथि हो गई। यह देख देवता गणों के आग्रह पर भगवान विष्णु ने प्रिया वियोग से भगवान शिव का ध्यान भटकाने के लिए सुदर्शन चक्र से आकाश में ही सती के शव के कई टुकड़े कर दिए। और फिर इनहि सती का जन्म “माता गौरी पार्वती” के रूप में हिमालय के यहाँ हुआ। 

कथा तो हो गई पर जो रोचक बात रही वह यह की, सती के शव के टुकड़े जब हुए तो उनके खून के छींटे बिहार के मढ़ौरा में भी पड़े। जहां बाद में “गढ़ देवी मंदिर” की स्थापना हुई। 

लोक कथा यह भी है कि शक्ति पीठ मंदिर थावे, जिसके बारे में पिछले पोस्ट में बताया था कि माता के भक्त “रहसू भगत” के बुलावे पर माता कौड़ी कामाख्या से चलकर जगह-जगह विश्राम करते हुए थावे पहुँची थी।  इस दौरान माता ने थावे पहुंचने से पहले मढ़ौरा के इसी गढ़देवी मंदिर के पावन स्थल पर विश्राम किया था। यहीं वजह है कि यहां माता की दो-दो पिंडिया स्थापित हैं और यह स्थल भी सिद्ध शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। 

वैसे तो छपरा ज़िला के मढ़ौरा के गढ़ देवी मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है और सालो भर यहाँ भक्तों का भीड़ लगी रहती है। यहाँ का प्रांगण पहले की तुलना में थोड़ा बड़ा और साफ़-सुथरा हुआ है। हाँ, यहाँ आने पर आपको एक और रोचक चीज़ देखने को मिलेगी,

वैसे तो सभी मंदिरों के मुख्य दरवाजे पूरब की ओर होती है, लेकिन मढौरा के गढदेवी मंदिर में पूजा करने वाली मुख्य मंदिर का गेट पश्चिम की तरफ है। कहते हैं यह भारत देश का पहला मंदिर है, जहाँ पूजा करने वाली गेट “पश्चिम” की तरफ है। 

इसके बारे में यह सुना है कि जब अंग्रेज यहां आये तो मढौरा में उद्योग लगाने की इच्छा से यहां की मन्दिर और मान्यताओं से अंजान थे। वे मंदिर को अनदेखा कर यहाँ आस-पास काम करने लगे पर वह कार्य सफल नही होता। ऐसे में अंग्रेज अफ़सर परेशान-परेशान। 

एक रात एक अंग्रेज को माता ने सपने में मंदिर के पास कार्य कराने से मना किया। अंग्रेजों ने इसे मानने से इंकार किया और यह सन बातें बकवास बताई। लोगों की आस्था और मज़दूरों का विश्वास देख फिर उस अफ़सर ने कहा, “यदि तुम्हारी माता स्वयं शक्ति है तो चमत्कार करें।” और फिर मंदिर का जो गेट खुद ब खुद सुबह होने से पहले पूरब से पश्चिम हो गया। सुबह अंग्रेजों ने यह देखा तो उनके होश उड़ गए और उन्होंने माता से माफ़ी माँग वहाँ से थोड़ी दूर हटकर मढौरा में चीनी मिल, मोर्टन मिल, सारण इंजीनियरिंग और डिस्ट्रिल वाटर की चार फैक्ट्रियां स्थापित की। 

बिडंबना यह की बिहार सरकार इन चारों फैक्टरियों में से किसी को भी बाद के समय बचा नही पाई। मंदिर के सिवा ये सब अब खंडहर है… 

Sunday 29 May 2022

रिले !!

 सम्मान क्या होता है, कैसे दिया जाता है यह व्यक्ति और समाज के ऊपर निर्भर करता है। कई बार इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ भी लोगों के लिए मायने नही रखती तो कई बार बच्चों की कविता लिखने वाला कवि भी इतना सम्मान पाता है की उसके शहर को उसके नाम से रंग दिया जाता है। 

अमेरिका के क़रीब 43-44 स्टेट घुम चुकी हूँ। पर किसी लेखक के प्रति इतना सम्मान इंडियापोलिस में ही देखने को मिला। जबकि अमेरिका को महान बनाने में कई बेहतरीन लेखक का नाम जुड़ा है। 

आज हम चलते है, “जेम्स व्हिटकॉम्ब रिले” के घर। एक ऐसे कवि जिन्होंने बच्चों की कविताएँ लिख कर अमेरिका में खूब नाम कमाया और एक समय में सबसे ज़्यादा बिकने वाले लेखक के रूप में शुमार हुए। वह अलग बात है कि बाद के दिनों में इंडिनापोलीस से लेखक “कर्ट वोनगुट” और “जॉन ग्रीन” नाम  विश्व पटल पर ज़्यादा प्रचलित हुआ। लेकिन, आप कभी इंडीयनापोलिस आए तो आपको रिले ही रिले दिखेंगे। इनके नाम म्यूज़ियम, बच्चों के हॉस्पिटल, कुछ प्री स्कूल दिख जाएँगे। यहाँ तक की आम दुकानें जैसे कार शॉप, जेनरल स्टोर, लाइब्रेरी का कुछ भाग और शहर की कुछ दिवार भी रिले नाम से रंगे मिले जाएँगे। जब मैं यहाँ पहली बार आई थी तो लगा कि यह रिले क्या है जो हर तरफ़ दिख जाता है। यह कोई स्टोर चेन जैसा कुछ है क्या ? और फिर एक दिन शिकागो जाने के रास्ते में यह नाम फिर दिखा तो फटाफट गूगल किया। मालूम हुआ यह तो यहाँ के एक कवि का नाम है।

 मैं चकित थी कि “एडगर ऐलन पोय” का घर हम बोस्टन में ढूँढते रहे पर मिला नही। इलिनॉस (शिकागो) के लेखक हेमिंवे के नाम एक स्ट्रीट और उनका घर म्यूज़ियम के रूप में है। सिल्वीया प्लाथ बॉस्टन में जहाँ जन्मी, वहाँ अब एक हॉस्पिटल है। ऐसे ही मार्क ट्वीन फ़्लॉरिडा में जन्में यह मुझे फ़्लोरिडा से आने के बाद मालूम हुआ। न्यू यॉर्क की तरफ़ तो कई लेखक रहे पर उनमें से कई की जानकारी बाद में हुई। अल्बमा जाना हुआ तो वहाँ रोकेट सेंटर और मोंटोगामेरी घूमना हुआ। पर बाद में मालूम हुआ की उसी मोंटग़ेमेरी में To Kill a Mockingbird" के लेखक हार्पर ली का जन्म हुआ था। 

ख़ैर दुनिया में इतनी सारी बातें हैं, क़िस्से हैं कि एक इंसान की बस की बात नही। कोई किसी को नही जानता इसमें कोई बुराई नही और ना किसी के काट देने से किसी की कृति नष्ट हो जाएगी। लाख नकार दें पर उसका अंश मात्र कहीं ना कहीं रहेगा ही इस ब्रह्मांड में। 

तो चलिए आज तस्वीरों के ज़रिए घूमते है होसियर कवि, रिले के घर। और हाँ, जिसने भी कहा है पर सच कहा है, “ जिसने बच्चों का मन जीत लिया उसने दुनिया जीत ली”  

नोट- यहाँ हम कोरोना काल में गए थे। उस वक्त इनके घर रूपी म्यूज़ियम में मरम्मत का काम चल रहा था पर हमें इनके छोटे से कैम्पस में घूमने की आज्ञा मिल गई थी। 

Tuesday 17 May 2022

प्रेम शांति !!

सूर्योदय और सूर्यास्त को देख कई बार भ्रम हो जाता है कि यह उगता सूरज है या डूबता… चक्कर तो हमारी पृथ्वी के पैर में लगा है पर हम मानते है कि सूरज डूब गया या उग गया। कुछ इसी तरह का हाल हमारे दिमाग़ के तन्तुओं का हैं। आँखें जो देखतीं है, कान जो सुनता है उसकी सूचना फटाफट ‘नियोकॉर्टेक्स’ तक पहुँचती है। 

 नियोकॉर्टेक्स दिमाग़ का वह ग्रे भाग है जो संवेदी धारणा, अनुभूति, तर्क-वितर्क का काम करता है। ग्रे मैटर से बना यह भाग सच में ग्रे है। तभी तो एक ही बात पर किसी का तर्क आपको कभी अच्छा लगता तो कभी कुतर्क। 

विश्व में आए दिन हो रही हिंसा को कभी आप जायज़ मान लेते हैं तो कभी नाजायज़। यूक्रेन के युद्ध को सही और रसिया को ग़लत… हिंदू को सही मुसलमान को ग़लत… गोरे को सही काले को ग़लत… यहाँ तक की भोलेनाथ सही और अल्लाह ग़लत…

यह ग्रे मैटर ही है जो बीते दिनों यहाँ एक 17 साल के गोरे लड़के से 10 अश्वेत लोगों का क़त्ल करवा देता है… यह ग्रे मैटर ही है की बीते दिनों यहाँ एक भारतीय लड़के को बुरी तरह मिड्डिल स्कूल में बुली करवा जाता है। यह ग्रे मैटर ही है जो बीते दिनों ताईवानी लोगों पर एक चर्च में हमला करवा जाता है। 

पर इन सब के बावजूद दुनिया ग्रे से ही चल रही। तो क्यों ना हम अपने नियोकॉर्टेक्स और विश्व शांति के ख़ातिर एक बार इस खूबसूरत ग्रे को वैसे ही बैलेंस करें जैसा काला और सफ़ेद… और इस ग्रे के बीच एक नारंगी आभा का उदय हो जो सिर्फ़ प्रेम , शांति , सौहार्द सौमनस्य ले कर आए।

Tuesday 12 April 2022

लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा !!!

एक किताब जिसे सालों पहले पढ़ी तो असमंजस में रही कि यह कैसा नायक है? यह कैसा प्रेम है?  कैसी कहानी है यह…यह तो देह के ज़रिए देह को संतुष्टि करने वाली बात है। यहाँ मन की तो बात ही नही। 

उस वक्त किताब के कुछ हिस्से ठीक नही लगे थे। ऐसे में उन दिनों किताब पर जो राय दी थी, उसमें नायक के प्रति रोष ज़्यादा था। प्रेम और दया कम महसूस हुई थी। इन दिनों मेमोरी में इसे देख फिर से इसके कुछ पन्ने पलटने का मन हुआ। 

किताब है, “लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा”

इस किताब का नायक शारीरिक रूप से कुरूप और स्टोकर लगता है। उसके जीवन में प्यार कुछ ऐसे आता है कि बस वह प्रेम ही हो जाता है। वह पूरी तरह प्रेम में डूबा होता है कि एक दिन जबाब पाता है, “उसकी प्रेमिका के मन में अब उसके लिए प्रेम नही बचा।” उसकी हालत कॉलरा के मरीज़ों जैसी हो जाती और फिर शुरू होता है इंतज़ार का एक अजीब तरीक़ा। 

अपने लम्बे जीवन काल में वह 622 औरतों से सम्बंध बनता है। कई वन नाइट स्टैंड होते फिर भी उसके मन को सुकून नही मिलता। नायक के अनुसार यह देह को देह की ज़रूरत भर है। उसके मन का सम्बंध तो सिर्फ़ नायिका तक ही सिमटा है…वह अब भी उसके इंतज़ार में है। प्रेम में इंतज़ार ही प्रेमी का प्रेम है। 

ख़ैर, सालों पहले भी मुझे इंतज़ार का यह तरीक़ा ना रुचा, ना अब। हाँ, इस बार यह ज़रूर हुआ कि मैं नायक से उस क़दर रोष नही कर पाई जैसी पहली बार हुआ था। शायद इस तरह के प्रेम को समझने की अब भी बुद्धि विकसित नही हुई या फिर इस किताब को एक बार फिर उम्र के किसी और पड़ाव में पढ़ना होगा। 

किसी के इंतज़ार में इतना सिमट जाना कि देह, रोग और प्रेम में अंतर ही ना हो…क्या ऐसा इंतज़ार हो सकता है भला? क्या इतना इंतज़ार हो सकता है? क्या तब तक प्रेम बचा रह सकता है? क्या इंतज़ार प्रेम को धीरे-धीरे मार नही देता? 

प्रेम को समझना आसान को जटिल बनाना है। 

इस बार इसे पढ़ते हुए कई बार लगा कि लिखते वक्त लेखक ने इस उपन्यास में देह को प्रेम से अलग रखा है। तभी तो अविवाहित नायक सैकड़ों स्त्रियों से सम्बंध बनाने के बावजूद जीवन के 91वें वर्ष में जब नायिका से मिलता है तो खुद को वर्जिन कहता है। किताब पढ़ते हुए आप पाएँगे कि इन तमाम संबंधो के बीच भी नायक का  मन हमेशा नायिका के लिए व्याकुल-एकनिष्ट रहा है। 

इंतज़ार के इन पलों को काटने के लिए उसका तरीक़ा निर्मम और दैहिक ज़रूर रहा पर इन्हें पढ़ते वक्त मुझे, “अहमद फ़राज़” अचानक  याद आए। वाक़या है, नायक ने पहली बार नायिका के “हाँ” कहने पर गुलाब की सैंकड़ों पंखुड़ियाँ खा ली थी। कहीं वहीं गुलाब विरह के दिनों में उसके शरीर रूपी किताब में सुख तो नही रहें थे…उसके सूखे नुकीले छोटे-छोटे काँटे जब-तब उसे चुभते रहते… उन पंखुड़ियों की लालिमा उसके खून के साथ हृदय तक दौड़ रही होंगी… मन में उम्मीद की सुगंध बिखेर रही होगी…51 वर्ष, 9 महीने और चार दिन के एकतरफ़ा प्रेम में गुलाब, पंखुड़ी दर पंखुड़ी अलग होती गई होगी कि, वह आएगी या नही…उम्र की आख़िरी पड़ाव और आख़िरी पंखुड़ी पर अटका मन, अहमद फ़राज़ से कह उठा होगा- तुम तो शायर हो फ़राज़,  तुम्हीं लिख दो ना मेरे इंतज़ार के ये साल मेरे महबूब के नाम…कि उम्र के 91वें बरस, अब ना मिले तो शायद ख़्वाबों में मिलें…उसके प्रेम में खाए फूल मेरी कब्र की किताब पर मिले…कि,

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें 
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती 
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें 

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा 
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों  में मिले

और यह आख़िरी शेर तो जैसे फ़राज़ ने इनके अंतिम भेंट के लिए ही लिखी है कि, जब दो वृद्ध जवानी की उन्माद से इतर, झूर्रियों और झूलते-लटकते हाड़-मास के साथ आलिंगनवध थे…नदी, नाव और एक दूसरे में सिमटे दो लोग अपने पुराने दिनों को याद करते है…निर्वस्त्र नायिका अपने देह को ढाँपते हुए कहती है-  मुझे मत देखो, अपनी आँखें बंद कर लो…

कभी उन्माद से भरा नायक आज संयम और धीरज के साथ कहता है- पर मेरा प्रेम ज़रा भी कम ना हुआ…

अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माज़ी है "फ़राज़"
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें


Wednesday 6 April 2022

लिस्नर !!


कल मैंने फ़िल्म, “हे सिनामिका” के बारे में लिखा था। इस फ़िल्म में नायक को ज़्यादा बोलने की आदत है। पर आजकल सुनना कौन चाहता है ? जीवन के भागदौड़ में किसी के पास किसी को सुनने की फुर्सत कहाँ? अगर किसी के पास फुर्सत भी है तो वो आपकी ही सिर्फ़ क्यों सुनेगा? उसके अपनी भी तो हज़ारों बातें होंगी, हज़ारों तकलीफ़ें होंगी। वह भी उसे सुनाना चाहता होगा।

दुनिया सोशल मीडिया पर जितनी वोकल है उतनी ही आम ज़िंदगी में अकेली। देखा तो होगा ही आपने घर -घर मोबाइल, हाथ-हाथ मोबाइल। पड़ोस में क्या हो रहा है वह भी कई बार फ़ेसबुक अपडेट से मालूम होता है। 

अभी एक -डेढ़ महीने पहले बाबा जी बता रहें थे कि, “ अब घूर कहाँ कोई लगावे… सब लोग अपना-अपना घर में हीटर तापेला।”

 घूर, सर्दियों में सबसे मज़ेदार मीटिंग स्थल होता। लोग दुनिया जहान की बातें आग को घेरे करते रहते। घंटा-घंटा कब बीत जाता पता ही नही चलता। घूर और घोनसार एक समय में रियल फेसबुक था। यहाँ रिएक्शन और कमेंट तुरंत सामने मिलता। वह सब सिमट कर अब एक कोने में फ़ोन के साथ जुड़ा है। 

इस तरह के माहौल ने हर चीज़ को बाज़ारवाद  से जोड़ दिया है। ऐसे में क्या आपको मालूम है कि, सिर्फ़ सुनने के लिए भी आप पैसे दे कर किसी को हायर कर सकते हैं? 

जी हाँ, सही पढ़ा आपने। पैसे देकर कर किसी को अपनी मन की बात सुनाना।

“ लिस्नर” एक जॉब प्रोफ़ाइल है जो लोगों की मन की बात सुनते हैं। ऐसे लोग आमतौर पर मेडिकल या कोर्ट ट्रायल के लिए पहले से ही काम कर रहे हैं लेकिन आजकल के तनाव और अकेलेपन के जीवन में इनकी डिमांड अब  ज़्यादा बढ़ गई है। ये लिस्नर पर घंटे के हिसाब से सुनने का काम करते हैं। ये बस आपको सुनते रहते हैं। कोई सुझाव या ज्ञान नही देते ना ही बीच में टोक-टाक। बस कुछ ऐसा कि बोल ले भाई/बहन, कर लें अपना मन हल्का। 

तो अगर आप सहनशील है, दूसरों की बातें घंटों सुन सकते है बिना प्रभावित हुए फिर आप एक गुड लिस्नर है। ऐसे में आप चाहे तो इस क्षेत्र में भी कैरियर ऑप्शन चुन सकते हैं। लेकिन, लेकिन इसके लिए अपनी भावनायें आपको घर पर छोड़ कर जानी पड़ेगी, नही तो दूसरों की उदासी, क्रोध, बेबसी, घुटन सब आप अनजाने में खुद के भीतर भर लाएँगे। "

एक Calvin एक अच्छा श्रोता बनने के लिए एक महान व्यक्ति की आवश्यकता होती है ."

Calvin Coolidge.

के लिए एक महान व्यक्ति की आवश्यकता होती है ."

Calvin Coolidgeलिस्नर के ऊपर बनी यह शॉर्ट फ़िल्म देखिए और सोचिए आने वाले समय में हम कहाँ जा रहें है…. 




Thursday 24 March 2022

रॉयल्टी !!!

मुझे एक लेटर आया है अमेजन की तरफ़ से। इसमें मेरी मेरी किताब, “प्यार पर सवाल नही” की इस मन्थ की रॉयल्टी और टैक्स का स्टेटमेंट छप कर आया है। इस तरह के लेटर पहले भी आ चुके है पर आज इसे शेयर करने का कारण भारत में हो रहे रॉयल्टी  विवाद है। बीते कुछ दिनों से लेखक-प्रकाशक और रॉयल्टी की बातें खूब हो रही है जिसकी आँच पहले युद्ध और अब होली में कम होती दिख रही है। वहीं कुछ दोस्तों ने मुझसे पूछा भी कि तुमने इस पर कुछ भी नही लिखा जबकि तुम्हारी खुद चार किताबें आ गई है। 

बात तो सही है कि , “मनलहरी”, “ ऐसे भी कोई करता है भला” “आह वाली यात्रा” और “प्यार पर सवाल नही” यह चार किताबें मेरी आई है। पर यह चारों ही ई- बुक है। यानि किंडल बुक है। मेरी किताबें अब तक पेपरबैक में नही आई है। या फिर किसी ऐसे साइट पर जहाँ आपको रॉयल्टी  के लिए अलग से बात करनी पड़े। 

अमेजन से अब तक का मेरा अनुभव संतोषजनक रहा है। यहाँ पर किस देश में कितने लोगों ने मेरी किताब ली, किसने कितना पन्ना पढ़ा यहाँ तक मालूम चल जाता है। फिर किताब की रॉयल्टी, किताब के दाम के हिसाब से आपको खुद तय करना पड़ता। किस महीने कितनी किताब आपकी बिकी के साथ रॉयल्टी खुद ब खुद टैक्स काट के आपके एकाउंट में आ जाती है। साथ ही मेल और लेटर भी घर पर आता है जिसमें सारी डीटेल दी होती है।

मेरी पिछली किताब को आए एक साल हो गए पर मार्च के महीने में दो लोगों ने इसे लिया तो मुझे इसका मेल आ गया। और उसी ख़ुशी में मैंने होली पर इस किताब का कुछ अंश शेयर किया कि एक साल भी लोग किताब पढ़ रहे है। वरना तो मेरी मार्केटिंग स्किल तो बहुत बुरी है। किताब लिख लेती हूँ और प्रचार के नाम पर शुरू में एक दो पोस्ट भर। 

 ख़ैर अब मुद्दे पर आए तो मुझे अभी भी ठीक -ठीक मालूम ही नही कि कौन सा प्रकाशन भारत में किस लेखक को कितनी रॉयल्टी देता है। कहीं 10% दिखता है तो कहीं 20% और यह भी क्या फ़िक्स है या प्रसिद्ध लेखकों के लिए कुछ अलग क्लॉस है। 

मुझे दो-चार सेल्फ पब्लिशिंग बुक के मैसेज भी मिले थे कि इतना अमाउंट दे कर आप बुक सेल्फ पब्लिश करा सकतीं है। पर मेरी इस बारे में कभी बात ही नही हुई तो रॉयल्टी वाली बात ही नही आई। 

आज जिन वरिष्ठ लेखक से यह बात शुरू हुई और जिन्होंने यह मुद्दा उठाया, उन दोनों के ऊपर मैं क्या लिखूँ… मैंने तो खुद , नौकर की क़मीज़, दिवार में एक खिड़की और एक कविताओं का संग्रह भाई के किताबों के संग्रह से लेकर पढ़ी है। मानव कौल कि जो दो किताबें पढ़ी वह भी मुझे फ़्री pdf मिली थी। अब ऐसे में हिंदी की किताबें कितनी बिक रही है इसका अंदाज़ा मैं ठीक -ठीक लगा नही पा रही।

हाँ,  कुल मिला कर यह कह सकती हूँ कि किसी की इक्षा के विरुद्ध उसकी किताब को छापना ग़लत है। और यह भी कि अगर कोई अपने काम की जानकारी लेना चाहता है तो थोड़ी देर से ही सही पर उसे जबाब तो मिलना ही चाहिए। 


Saturday 5 March 2022

दोनों के दिल हैं मजबूर प्यार से 
हम क्या करें मेरी जां तुम क्या करो

इस ग़ज़ल को मैंने पहली बार पटना से बसंतपुर जाने वाली बस में सुना था। यह मुझे इतनी अच्छी लगी कि मुझसे रहा नही गया और पहली सीट पर बैठी मैं, बस के गेट से झूल रहे खलासी से पूछा , “ यह किस फ़िल्म का गीत है ?” 

खलासी कुछ मेरी ही उम्र का होगा। मेरे इस सवाल से बेफ़िक्री में लाज को घोल कर बोला, “ फ़िलीम के नाम मालूम नही, कसेट में भरवाए है गीत सब”

“अच्छा” कह कर मैं खिड़की से बाहर देखने लगी। थोड़ी देर में गाना ख़त्म हुआ। वह धीरे से आगे बढ़ा और री प्ले कर दिया। गाना फिर से बजता देख मैंने स्पीकर की तरफ़ देखा। वहाँ खड़ा वह कुछ ढूँढ रहा था। मैं फिर से गाने में खोई हुई खिड़की से बाहर देखने लगी। तभी वह एक कैसेट मेरी तरफ़ करते हुए बोला , “ मैडम, हेमे देख लीजिए, एही में ई गीतवा भरवाए हुए है।” 

कैसेट का कवर एक सफ़ेद काग़ज़ जो पीली-मटमैली पड़ गई थी वह थी। उसपर सुंदर अक्षरों में 1 से 10 तक के नम्बर लाल स्याही से लिखे हुए थे। हर एक नम्बर के आगे नीली स्याही से गीत के बोल लिखे थे। हाँ , शब्दों के माथे को ऐसा बांधा गया था जैसे कोई नदी बह रही हो… मैंने उन्हें देखा और कहा, इस पर सिर्फ़ गाने के नाम है और कैसेट उसकी तरफ़ बढ़ा दिया।

कुछ घंटों में मेरा पड़ाव आ गया और मैं उतर पड़ी। कुछ दिनों बाद भाई एक कैसेट लाया अपने दोस्त के यहाँ से। कैसेट पर लिखा था “अदा” यह जगजीत सिंग और लता जी की गाई ग़ज़लों का कलेक्शन था। मैंने जैसे कैसेट को पीछे पलटा मेरी आँखें ख़ुशी से चमक उठी। उस पर सबसे ऊपर लिखा था, 

“दोनो के दिल है” 

उन दिनों के अजब -ग़ज़ब खलासियों में एक संगीत प्रेमी खलासी का मिलना कितना सुखद था ना। आज यतिश जी की पोस्ट पर यह ग़ज़ल सुना तो उसकी याद आई। जाने अब खलासी नामक कोई प्राणी बस में होता भी है या नही ? होता भी होगा तो हनी सिंह या पवन सिंह में डूबा होगा ….

वैसे जिन्हें ना मालूम हो उनके लिए, खलासी बस में कंडक्टर के अलावा एक एक्स्ट्रा हेल्पिंग हैंड होता था। इनका काम समान चढ़ाना, उतारना, सवारियों को आवाज़ दे कर बुलाना, बस के गेट पर झूलते हुए आस -पास से गुजर रही गाड़ियों को दाएँ -बाएँ करवाना और गाने के कैसेट या अगर सी डी प्लेयर हो तो फ़िल्म बदलना।

 भला हो उस लड़के का जिसकी वजह से मुझे इतनी अच्छी ग़ज़ल सुनने को मिली। और कमाल यह कि इसी अल्बम की एक दूसरी ग़ज़ल मुझे इतनी भाई कि उसे कई दफ़ा रिपीट मोड़ में सुना। अब भी इन्हें सुनती हूँ पर आज बहुत दिन बाद सुना। ग़ज़ल है ; 

मैं कैसे कहूँ जाने जा …



Wednesday 2 March 2022

बिछिया !!!

 और बिछिया टूट गया… मुझे ठीक से याद नही कि इसे कितने सालों पहले पहना था। दिमाग़ पर ज़ोर देती हूँ तो कुछ छह-सात की बात ध्यान में आती है। शादी के बाद कई तरह के श्रिंगार और आभूषणों में मुझे बिछिया, महावर और सिंदूर बहुत भाए। बिछिया पसंद तो बहुत आई पर हर बिछिया मुझे थोड़ा परेशान ही करती। कभी कोई चुभती तो कभी कोई उँगलियों से निकलने लगती। कोई बार-बार कपड़े में फँसने लगती। बड़ी मुश्किल से एक रिंग वाली, प्लेन बिछिया मुझे पसंद आई और उसे खूब पहना। पर वह भी किसी दिन उँगली से सरक कर कब गुम हो गई मालूम ही नही चला। यहाँ से जाने के बाद मम्मी ने टोका एक ही बिछिया पहनी हो ? मैंने सारी कहानी बताई। वो जाकर बाज़ार से दो जोड़ी और नग वाली छोटी बिछिया ले आई। देखने में सुंदर पर मेरे पैर को रुचे ही ना। मैं फिर से पुराने वाली एक बिछिया पर थी। मायके जाने की ख़ुशी में ध्यान ही नही रहा कि जोड़ा बिछिया पहन लूँ। एक ही बिछिया पहन कर माँ के पास चली गई। 

माँ, जो बच्चों को एक नज़र में ऊपर से नीचे तक देख लेती है उसकी परखी नज़र से मिनट में मेरी बिछिया पकड़ा गई। रात को मुझसे पूछती है, “ बऊवो, दूसरा बिछिया रास्ता में गिर गया क्या ?”

 मैंने खीज कर कहा और नही तो क्या “ ससुराल वाले तो ससुराल वाले, तुमने भी ना जाने किस खुशी में मुझे भारी गहनों से लाद दिया जबकि तुम्हें मालूम है मुझे गहने पसंद नही” माँ ने समाज की दुहाई दी। पर अगले ही दिन यह वाली बिछिया और पतली चेन की पायल ख़रीद लाई। पायल में छोटे -छोटे दिल, मेरे अनुसार पर माँ के अनुसार पान के पत्ते झूल रहे थे। 

यह बिछिया कुछ ऐसी जो पैर कि उँगली से ऐसी लिपटी जैसे, 'चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग‘

 इसने मानो तीन फेरों में मेरे पैर रूपी पेड़ के जड़, तना और हृदय को लपेट लिया था। इतनी मुलायम और प्रेम से लिपटी की इतने सालों में मुझे इससे कोई शिकायत नही रही। यहाँ जिसकी भी नज़र मेरे पाँवों तक जाती इस बिछिया की तारीफ़ ज़रूर करता। 

शिवरात्रि थी। पैरों में महावर थे और यह टूटी बिछिया भी पर मुझे इसकी ख़बर तक ना थी। साथी की नज़र इसकी टूटन पर पड़ी तब मुझे अहसास हुआ कि जा…यह तो टूट चुका है। मैं थोड़ी उदास थी। साथी ने भी इससे जुड़ी पुरानी प्रेम भरी बातें याद दिला कर और उदास ही किया। कितनी यादें जुड़ी थी इससे…

समय कितना बलवान है ना धातु को भी कमजोर कर देता है। यह सोचते हुए आज नज़र पैरों तक गई, राम और अहिल्या की याद आई…क्या सच में किसी की पाषाण अवस्था किसी स्नेहस्पर्श से जीवित हो सकती है? अगर ऐसा है तो मेरी बिछिया तुम भी जीवित हो उठो…अगर नही तो सब मिथ्या है।

मेरी दादी कहती थीं, अंत गति में सिर्फ़ गोदना ही है जो जीव के साथ जाता है बाक़ी सब यही रह जाता है। मैंने हँसते हुए कहा था , “ दादी गोदना भी त देह के साथ जर जाई, ई कोई आत्मा पर थोड़े गोदवावल बा” 

दादी मेरी हँसने लगी और बोली , “ के देखले बा दुनिया में आत्मा …बियाह के बाद तूहो गोदना गोदवा लिहअ प्रियंका। देह जरी, माटी मिली। गंगा जी में समा जाई। साथे आपन करम आ गोदना ही जाई”

गोदना तो मैंने नही गोदवाया पर मैं चाहती हूँ कि यह बिछिया मेरे साथ अंतिम यात्रा में हो… यह मेरे आत्मा के साथ भ्रमण करती रहे काल दर काल…



Sunday 20 February 2022

बेंजामिन हैरिसन !!!

आज अमेरिका में प्रेसिडेंट डे मनाया जा रहा है। यह हर साल फ़रवरी के तीसरे सोमवार को मनाया जाता है। इस दिन सार्वजनिक छुट्टी तो नही होती लेकिन स्कूल के अलावा कुछ दफ़्तर, शॉप्स आदि बंद रहते है।  

आज जहाँ हम लोग घूमने जा रहे हैं वहाँ चलने से पहले अमेरिका के एक राष्ट्रपति का थोड़ा इतिहास जाने ले।  

अब तक अमेरिका में 45 लोगों ने राष्ट्रपति का पद ग्रहण किया है। इस सूची से एक व्यक्ति , इंडियापोलिस से चुने गए थे। 

रिपब्लिकन पार्टी के “बेंजामिन हैरिसन ”

ये  संयुक्त राज्य अमरीका 23वे राष्ट्रपति थे। इनका कार्यकाल सन 1889 -1893 तक रहा। इनका जन्म 20 अगस्त 1833 में ओहायो में हुआ था पर बाद के दिनों में ये इंडियापोलिस आ कर बस गए। वकील होने के साथ -साथ बेंजामिन हैरिसन सिविल वॉर के जेनरल भी रहे। और ये आख़री सिविल वॉर जेनरल रहे जो अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे। 

सेना में जाने की रुचि और राजनीति इन्हें विरासत में मिली थी। इनके दादा “विलियम हेनरी हैरिसन”   अमेरिकी सैन्य कमांडर और संयुक्त राज्य अमेरिका के नौवें राष्ट्रपति थे। पर इनका कार्यकाल सबसे कम समय के लिए रहा। बुख़ार और निमोनिया की वजह से इनकी मृत्यु शपथ लेने के एक महीने के भीतर ही हो गई थी। 

बेंजामिन हैरिसन का कार्यकाल भी कोई बहुत संतोषजनक नही रहा था। इनके कार्यकाल में पार्टी के भीतर व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण इन्हें सबसे कम लोकप्रिय राष्ट्रपति में से एक गिना जाता है। 

तो चलिए आज हम इनके घर चलते है। इनके घर को अब म्यूज़ियम का दर्जा दे दिया गया है। इसका नाम “बेंजामिन हैरिसन प्रेज़िडेंशियल साईट” है। यहाँ जाने के लिए आपको इंडियापोलिस के डेलावेयर स्ट्रीट पर जाना होगा। इस घर रूपी म्यूज़ियम में इनकी कुछ चीजों को संग्रह किया गया है जैसे, बेड, लिखने-पढ़ने की मेज़, किताबों से भरी अलमारी, सुंदर सा डाईनिंग टेबल आदि। 

यहाँ जाने से पहले आपको टूर बुक करनी पड़ती है। एक साथ ज़्यादा लोगों को भीतर जाने की अनुमति नही। जगह भी उतनी नही की ज़्यादा लोग समा पाए। टूर गाइड साथ होता है पर आप चाहे तो खुद भी घुम सकते है। घर के बाहर एक सुंदर सा गार्डेन एरिया है। हम जब गए थे, ठंढ शुरू हो चुकी थी और यहाँ ठंड में हवा भी बहुत चलती है इसलिए हमने बाहर बहुत कम समय बिताया। इस म्यूज़ियम के भीतर भी नही जा पाए कारण कोविड की वजह से टूर बंद था। हमने बाहर से हीं कुछ तस्वीरें ली और लौट आए। 

नोट- पार्किंग आपको रोड साइड ही करनी पड़ेगी। घर ढूँढने के लिए थोड़ा ध्यान देना होगा। जी पी एस आस-पास जाकर बताने लगता है कि घर यहीं है पर सामने घर नही दिखता कारण लाइन से कुछ घरों के साथ बड़े-बड़े मेपल के पेड़ों की ओट में है यह। 



Friday 18 February 2022

सिनेमा और स्त्रियाँ !!!

हृषिकेश मुखर्जी ने 1960 में “अनुराधा” बनाई।  सोफी बार्ट ने 2015 में “मैडम  वोभरी” और शकुन बत्रा 2022 में गहराइयाँ ले कर आए हैं। इन तीनों फ़िल्मों का काल अलग-अलग है पर कहानी मुझे कही-कही एक सी उलझी लगी। 

तीनों ही फ़िल्में अलग-अलग समय में एक स्त्री के अकेलापन, महत्वकांक्षा, भावनात्मक बिखराव, भटकाव और आत्मग्लानि के साथ डिप्रेशन को बखूबी दिखाती है। 

वैसे फ़िल्म के हिसाब से देखा जाए तो अनुराधा इन तीनों में बीस है। वहीं मैडम वोभरी को देखते वक्त मुझे अचानक अनुराधा की याद आई थी। दोनों ही फ़िल्म की कहानी कुछ एक सी है। समाजसेवी डॉक्टर, अकेलेपन की शिकार पत्नी और उसकी थोड़ी अच्छी जीवन शैली की इक्षा। अनुराधा पर तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है पर इस वक्त इतना ही कि उस वक्त भारतीय फ़िल्में जो स्वीकार करती वहीं दिखाया गया। वहीं मैडम वोभरी, अपनी अकेलेपन का उपाय फ़्रांस के तरीक़े से निकालती है। अडलट्री, ग्लानि और अंत, आत्महत्या पर पूरी होती है। 

बात करें गहराइयाँ कि तो मुझे यह फ़िल्म ठीक ही लगी। प्लॉट कोई नया नही है। ऐसी  प्लॉट वाली फ़िल्में बंगला में खूबसूरत बनती है।  इस फ़िल्म की एडिटिंग थोड़ी अच्छी होती और सीन बाई सीन भागने की रफ़्तार कम तो बेहतर फ़िल्म बनती। रही बात इस फ़िल्म की अडल्ट सीन की तो इसे A सर्टिफिकेट मिला ही है। इतना हाय तौबा क्यों ?  

हिंदी फ़िल्मों में फूहड़ आईटम सोंग देखे सकते है। बच्चे उसकी नक़ल कर सकते है पर 18 साल के ऊपर के बच्चे ऐसी फ़िल्म देख कर बिगड़ जाएँगे… हाय रे सभ्यता का चोला। क्या इस मोबाइल- इंटरनेट के युग में आज का युवा इन सब बातों से अनभिज्ञ है ? 

ख़ैर, कहते है सिनेमा समाज का आईना होती है। ऐसे में आज के परिवेश में ठीक ही तो दिखाया गया है। अब एक-दो बार की मुलाक़ातों वालों प्यार में आप क्या उम्मीद करते है ? वह तो अट्रैक्शन और किसी दबी भावना का उफान ही होगा ना। रही बात कपड़ों की तो जिस देश में हिजाब पर बवाल चल रहा हो वहाँ दीपिका या अनन्या की कपड़ों की क्या ही बात पचती ? जबकि महानगरों में तो क्या, छोटे शहरों में भी हम कम ज़्यादा ऐसे ड्रेस सेंस देख ही रहे हैं। 

पता नही आपने गौर किया या नही, फ़िल्म के निर्देश-राइटर ने इसका क्लाइमेक्स जाने क्या सोच कर ऐसा लिखा - फ़िल्म का नायक अपनी मंगेतर को एक बार बोट से धक्का देने और आगे बढ़ जाने का सोचता है। ठीक उसी तरह की घटना उनके साथ घटती है। 

शायद उनके दिमाग़ में कर्म का सिद्धांत घुम रहा होगा। 



Thursday 17 February 2022

Nothing is holier, nothing is more exemplary than a beautiful, strong tree. When a tree is cut down and reveals its naked death-wound to the sun, one can read its whole history in the luminous, inscribed disk of its trunk: in the rings of its years, its scars, all the struggle, all the suffering, all the sickness, all the happiness and prosperity stand truly written, the narrow years and the luxurious years, the attacks withstood, the storms endured. And every young farm boy knows that the hardest and noblest wood has the narrowest rings, that high on the mountains and in continuing danger the most indestructible, the strongest, the ideal trees grow.

Trees are sanctuaries. Whoever knows how to speak to them, whoever knows how to listen to them, can learn the truth. They do not preach learning and precepts, they preach, undeterred by particulars, the ancient law of life.

A tree says: A kernel is hidden in me, a spark, a thought, I am life from eternal life. The attempt and the risk that the eternal mother took with me is unique, unique the form and veins of my skin, unique the smallest play of leaves in my branches and the smallest scar on my bark. I was made to form and reveal the eternal in my smallest special detail.

A tree says: My strength is trust. I know nothing about my fathers, I know nothing about the thousand children that every year spring out of me. I live out the secret of my seed to the very end, and I care for nothing else. I trust that God is in me. I trust that my labor is holy. Out of this trust I live.

When we are stricken and cannot bear our lives any longer, then a tree has something to say to us: Be still! Be still! Look at me! Life is not easy, life is not difficult. Those are childish thoughts. Let God speak within you, and your thoughts will grow silent. You are anxious because your path leads away from mother and home. But every step and every day lead you back again to the mother. Home is neither here nor there. Home is within you, or home is nowhere at all.

A longing to wander tears my heart when I hear trees rustling in the wind at evening. If one listens to them silently for a long time, this longing reveals its kernel, its meaning. It is not so much a matter of escaping from one's suffering, though it may seem to be so. It is a longing for home, for a memory of the mother, for new metaphors for life. It leads home. Every path leads homeward, every step is birth, every step is death, every grave is mother.

So the tree rustles in the evening, when we stand uneasy before our own childish thoughts: Trees have long thoughts, long-breathing and restful, just as they have longer lives than ours. They are wiser than we are, as long as we do not listen to them. But when we have learned how to listen to trees, then the brevity and the quickness and the childlike hastiness of our thoughts achieve an incomparable joy. Whoever has learned how to listen to trees no longer wants to be a tree. He wants to be nothing except what he is. That is home. That is happiness.


Believe me there is no such thing as great suffering, great regret, great memory....everything is forgotten, even a great love. That's what's sad about life, and also what's wonderful about it. There is only a way of looking at things, a way that comes to you every once in a while. That's why it's good to have had love in your life after all, to have had an unhappy passion- it gives you an alibi for the vague despairs we all suffer from.

Albert Camus, A Happy Death

My dear,


I was watching Rocket boys and in first two episodes only I am in deep love with it. I see a lot of myself in Sarabhai! And yes the name " Mrinalini "for which I always hold an attachment and about which I came to know first time in a book of Aurobindo. Really I wanted to keep the name of my daughter as  " Mrinalini " . The love between Mrinalini and Vikram is so beautiful. You must see... 

I hope you will be all fine and good. This tragic war makes me unhappy and I feel so pathetic to be a mere observer. There is so much of pain, there is so much of loss, depression and melancholy that I don't get words to put anything on paper. Human's inflated ego, endless desires and insecurities can bring anything to end. Often I go to terrace after my dinner and observe the dark sky and stars to forget this world and its underlying miseries. But to forget is difficult, yes it is difficult to forget what was beautiful earlier and now an abominable pierce in your heart!


Sunday 30 January 2022

सर्दी की धूप !!!

 मालूम नही कहाँ जा रही थी पर किसी सफ़र पर थी। बस में बैठी मैं खिड़की से बाहर भागते पेड़-पौधों को देख कर मुस्कुरा रही थी कि बस के दो सीटों के बीच से निकल कर एक हाथ मेरे हाथों में आया। हम दोनों के हाथ एक दूसरे पर ऐसे महसूस हुए जैसे हवा फिसलती हो…हल्की गुनगुनी धूप सी हथेलियों पर खिल ही रही थी कि मैंने हाथ खिचने की कोशिश की…

सर्दी की अलसाई सुबह और खिड़की पर कई दिनों के बाद धूप ढंग से सुबह-सुबह झूला झूल रही थी। सपने में हथेली की पर उगी हल्की धूप अब मुख पर थी। उठते ही मैंने एक-एक कर खिड़की के सारे पर्दे सरका डाले। बाहर बर्फ़ धीरे-धीरे पिघल रहे थे। पानी-पानी पसरा हुआ था जैसे बारिश हुई हो। धूप चेहरे पर पड़ रही थी और अच्छा लग रहा था। तभी एक ख़्याल आया कि क्या मन के अंदर का मन बाहर की प्रकृति से जुड़ जाता है ? नही तो आज सुबह -सुबह धूप कैसे…

गुनगुने पानी से भरा बाथटब और उसमें तैरती ख़्यालों की मछलियाँ, गीले बालों से फिसलती बूँदे और बाथरूम में फैली बादाम, सनफ़्लॉवर और हनी की हल्की ख़ुश्बू… ओल्ड फ़ैशन गर्ल आज भी बालों को धूप-हवा से सुखाती, कंधे पर गिरती मीठी धूप से नहा रही है, नया काजल आँखों में झाँस दे रहा है। वह आँखें मलती है कि एक जोड़ी पाँव और जुड़ जाते है कि “मी टू”अब दो जोड़ी पाँव आसमान को तकते, धूप सेंक रहें है। 

Saturday 22 January 2022

शायद ही किसी दिन कोई फ़िल्म नही देखती पर इन तमाम फ़िल्मों में कुछ ही है जो याद रह जाती है या कई दिन सोचने पर मजबूर कर जाती है। जैसे बीते दिनों Anthony Hopkins की The Father देखी और रो पड़ी। इस बीच बीमार भी हो गई थी और मैं भी बस अपनी माँ को यहाँ चाह रही थी। इस फ़िल्म पर बात फिर कभी आज बात अतनु घोष की फ़िल्म Binisutoy: Without Strings की । 
 “बीनीसूतोय” सच में अपने नाम के अनुरूप बिना शर्त वाली फ़िल्म है। रित्विक चक्रबर्ती को पहली बार “लेबर ओफ़ लव” में देखा था और उसके बाद तो इनकी फ़िल्में ढूँढ-ढूँढ कर देखी। कमाल के एक्टर लगे मुझे। इस फ़िल्म में भी इन्होंने अच्छा काम किया है। 

एक ऐसी फ़िल्म जिसमें सांसारिकता और एकाकीपन का मिश्रण है। आप सोच नही सकते कि अपने खालीपन को भरने के लिए कोई ऐसा भी कर सकता है। हम इस भागती-दौड़ती दुनिया का हिस्सा बनते-बनते सब कुछ तो पाने लगते है पर भीतर कुछ है जो भरता नही। और फिर इस डिजीटल युग में हम सब भी तो कहीं ना कही, किसी बिंदु पर एक अपनी आभासी दुनिया रचते ही है। 

फ़िल्म की कहानी सरबनी बरुआ( नायिका) और काजल सरकार( नायक) की है। दोनों के पास कुछ होते हुए भी वे कैसे मिथ्या जीवन जीते है अपने खालीपन को भरने के लिए यही इस फ़िल्म की कहानी है। 

यह फ़िल्म आपको स्लाइस ओफ़ लाइफ़ के साथ थोड़ा सस्पेंस परोसती है। हाँ, शुरू में कुछ जगह लगता है कि हट ऐसा कैसे ? बारिश हुई नही कि एक अजनबी के साथ रुके है जबकि घर दो घंटे की दूरी पर है। पर यही तो है कहानियों कि दुनिया। रचने वाला थोड़ा तिलस्म तो रचेगा ही। 

कुछ अग़ल देखना चाहते हो तो ज़रूर देखें यह फ़िल्म। 


Sunday 16 January 2022

मार्टिन लूथर किंग !!!

अमेरिका में जनवरी के तीसरे सोमवार को कई जगह छुट्टी होती है। यह छुट्टी “मार्टिन लूथर किंग” के सम्मान में दी जाती है। 

मार्टिन लूथर किंग वही जिन्होंने 'I Have a Dream'  का भाषण दिया था। इनका जन्म 15 जनवरी को अटलांटा में हुआ था। और जैसा कि आप सभी को मालूम ही होगा कि इन्होंने अफ्रीकी -अमेरिकी नागरिकों के अधिकारों के लिए आंदोलन चलाया था। यह आंदोलन कुछ सत्याग्रह जैसा ही था। किंग, गांधी जी के विचारों से बहुत प्रभावित थे। शायद यही वजह रही कि इन्हें अमेरिका का गांधी कहा जाता है। 

चर्च के पादरी मार्टिन लूथर किंग ने कहा कि, “ मैंने प्रेम को ही अपनाने का निर्णय लिया है। घृणा करना तो बेहद कष्टदायक काम है।” और इसी भावना से ये सिविल राईट मूव्मेंट में शामिल हुए। इन्होंने ने अमेरिका में फैले गोरे -काले के भेद को मिटाने के लिए  आंदोलन चलाया जो कि 381दिन चला। यह आंदोलन सेलमा से मोंटगोमरी तक शुरू हुई जो बाद में पूरे अमेरिका में फैल गई। आपको अगर याद हो तो अल्बामा घूमने के दौरान आपको यहाँ लेकर गई थी। 

वैसे इस विषय पर कई फ़िल्म देखना चाहे तो कई बेहतरीन फ़िल्में मिल जाएँगी। पर इस जगह और नाम से जुड़ी जो दो फ़िल्में मुझे याद आ रही है वह ,

Selma , जिसमें आप सेलमा से मोंटगोमेरी तक की यात्रा देख सकते  है।

और Boycott , जिसमें ‘रोजा पार्क’ नाम की एक अश्वेत महिला ने बस की सीट उठने से मना कर दिया था। जिसके बाद उन्हें जुर्माना देना पड़ा था और इसके बाद ही सिविल राइटस आंदोलन जोर पकड़ा।

मार्टिन लूथर किंग ने जन्म और मृत्य के बीच जो 39साल में जिया वह किसी प्रेरणा से कम नही। इनके योगदान के लिए इन्हें सबसे कम उम्र में विश्व शांति का नोबेल पुरस्कार मिला।  

तो चलिए कुछ पुरानी तस्वीरों के साथ आज फिर से याद करते है मार्टिन लूथर किंग को और अल्बामा की धरती को। 

Friday 7 January 2022

 शेक्सपियर आज के जमाने में पैदा हुए होते तो कान पकड़ लेते यह कहने से , “ नाम में क्या रखा है” 

जहाँ भारत की जनता स्टेशन, शहर, रोड, शायरों के नाम बदले जाने से परेशान है वही, अमेरिका में एक भारतीय अपने और अपने बच्चे के नाम को लेकर। हाँ, होगा भारत में ‘तपस्या’ नाम सुंदर नाम पर यहाँ तो तपस्या कहना लोगों के लिए एक समस्या है।

अधिकतर काम ऑनलाइन होने की वजह से यहाँ एक अलग दिक़्क़त आती है। फ़ोन की दूसरी ओर बैठी/बैठा व्यक्ति, तपस्या के ‘टी’ को “डी या पी” समझ लेता है। 

फिर शुरू होता है इधर से , 

नो-नो , इट्स टी . टी एज अ ‘टाइगर’ 

ओह, रियली सॉरी मैम के बाद ठीक से तपस्या तीन से चार बार में लिखा जाता है। कई बार चिढ़ भी आती है तो कई बार हँसी। 

इतना होने के बावजूद भी जब मैं माँ बनी तो सोचा, माँ का नाम तपस्या और बच्चा टॉम ,हैरी या आजकल के आधुनिक नाम भला कैसे रखूँ ? ऐसा नही लगेगा कि किसी और का ही बेटा है।

30 दिसम्बर के दोपहर को नामों की सूची बनाने बैठी। पहले से सोच रखा था कि नाम लेटर S से ही रखूँगी तो ज़्यादातर नाम स,श से ही चुने। उसमें से कुछ नाम तो मुझे बहुत पसंद आए जो आज भी याद है जैसे, 

सत्यार्थ ,शाश्वत, षड़ज , सर्वात्मिक , समाहित , सर्वप्रिय, स्वर्णिम और समृद्ध ।

संयोग ऐसा कि जिस दोपहर नामों की सूची बना रही थी उसी रात मुझे हॉस्पिटल जाना पड़ा। एक शरीर के अंदर दो मन जी रहे थे। ऐसे में पुराने मन का उत्साह देख को नया मन गर्भ में उछल-कूद मचाने लगा। ज़िद्द करने लगा कि ना, “मेरी माँ कितने उत्साह से इंतज़ार कर रही है। दिन गिन रही है, मेरा नाम चुन रही है। अब तो मुझे आज ही आना है इस दुनिया में चाहे जो हो।” 

 दिन शनिवार, तारीख़ 31दिसम्बर , साल 2016 को मेरा प्रथम पुत्र इस दुनिया में आया। 

बच्चा मेरा समय से पूर्व हुआ था। उसे Neonatal Intensive Care Unit (NICU) मे रखा गया। हम सब घबराए हुए थे। ऐसे में नाम पर इतना सोच विचार कौन करे… हमें सत्यार्थ नाम सबसे अच्छा लगा और बच्चे का नाम , “ सत्यार्थ भारद्वाज” रखा गया। 

सत्यार्थ, मेरा मीर मस्ताना, इशु राजा इस 31 दिसम्बर को 5 साल के हो गया। उम्र के साथ-साथ इनकी बदमाशी और प्यारी अदायें और बढ़ती गई है। साथ ही पढ़ने-लिखने की भी हल्की-फूल्की ज़िम्मेदारी इन पर आन पड़ी है। 

अब सोचिए जिस देश में तपस्या को लेकर इतना भ्रम है वहाँ ‘सत्यार्थ भारद्वाज’ लिखने में लोगों की क्या हालत होती होगी। 

एक दिन इसकी प्यारी टीचर ‘मिसेज़ फूके’ ने जाने किस मनोदशा में आकर एक नोट लिख कर भेजा , “ He will never write his name” 

मैंने कहा , हेंऽऽऽ ऐसे कैसे ? जेकर बनरा उहे नचावे… आप टेंशन ना ले और देखती जाइए मेरा बेटा कैसे अपना पूरा नाम लिखता है। और देखिए तो कैसे आज मेरा बेटा अपना नाम लिख रहा है। 

तो दुनियावालों सारा खेल नाम का ही है।

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