Monday, 14 October 2019

निखिल बनर्जी 14 अक्टूबर !!!

आज पिछले साल की मेमेरी आई की आज “निखल बनर्जी “ का जन्मदिन है। इनके बारे मे नया क्या ही कहूँ बस यू टूब पर जाइए ढूँढिए और संगीतलहरी मे डूब जाइए।

आज जो मै वीडीयो लगा रही हूँ वो बस इसलिए की आप देख सके की बाजा के साथ कैसे किसी के भाव बदलते है और कैसे बाजा किसी के हाथ मे नाचने लगती है। कई बार रूप और गुण सामने वाले की प्रकृति पर भी निर्भर करता है।

इस वीडीयो क्लिप को देख कर मेरे भी भाव कई बार बदले। पहली बार मैंने निखिल बनर्जी को इतने क़रीब से देखा। हर एक भाव सुर के साथ बह रहे थे। एक-आध जगह मेरी साँसे रुकी तो कही एक मुस्कान होंठों पर बिखर गई। उनके माथे पर आए पसीने के बूँद देख कर मन बेचैन हो उठा की काश उस वक़्त मै वहाँ होती। हौले से उन्हें मोर पंख से पंखा करती।
इतनी हौले से  जैसे साँसे चलती हो और जीवन सींचता जाता हो......

Thursday, 10 October 2019

कंसस !!!!

आज की यात्रा कंसस से शुरू करती हूँ ।आप सब भी तैयार हो जाइए इस जैज़ और फ़ावरो के शहर को घुमने के लिए। रुकिए साहबान ये सिर्फ़ गीत-संगीत का शहर नही ये शहर सबसे अधिक गेहूँ भी ऊपजाता है। साथ ही बीफ़ के मामले मे भी ये सिर्फ़ टेक्सस से पीछे है। वैसे यहाँ गेहूँ के अलावा सोयाबीन और मक्का भी ख़ूब होता है। साथ ही कंसस का बार्बीक्यू भी ख़ूब प्रसिद्ध है पर वही हम शाकाहारी जीव के लिए कुछ ख़ास ना था। कुछ भूने हुए मकई, थोड़ी तरकारी उसमें भी जूकनी, टमाटर और लालका-हरिहरका शिमला मिर्च कुछ पनीर के साथ। हमें ठीक ही लगा कुछ लाजवाब टाइप फ़ील नही आई।

तो सबसे पहले बताती चलूँ कि, यहाँ हम नेब्रास्का से लौटते समय आए थे। रास्ते भर ख़ूब परती ज़मीन और अपने यहाँ जैसा गाडहा-गुडही देखते आए। ऐसा लग रहा था सिवान से चम्पारण जा रही हूँ। कई जगह पानी जमा था। कई घर डूबे पड़े थे। पर वो घर पुराने थे। उन्मे कोई नही रहता था अभी। शायद इधर पानी लग जाता होगा इसलिए लोग विस्थापित हो गये हो। साथ ही ये लम्बी-लम्बी माल रेलगाड़ी। इधर तो मैने खेतों के बीच रेल की पटरी बिछी देखी। उसका स्टॉपेज हर बड़े खेत के स्टोरेज के पास था। हमलोग कई तरह की बातें इस बारे मे करते रहे और कब कंसस पहुँच गये पाता ही नही चला।

दिन के चार बजे हम होटल पहुँचे। राइस कुकर मे चाय बनाया। चाय पिया और थोड़ी देर आराम के बाद निकल पड़े कंसस सिटी घुमने।
सबसे पहले हमलोग “द नेल्सन ऐट्किंज़ म्यूज़ीयम ओफ ऑर्ट गए” हमलोग कुछ बीस मिनट ही इसे घूम पाए की इसके बंद होने का समय हो गया। दूसरे ऑर्ट म्यूज़ीयम से ये बहुत अलग नही था। कमो बेस मुझे हर आर्ट म्यूज़ीयम मे काफ़ी कुछ एक जैसे ही ऑर्ट पीस दिखते है। कुछ ही अलग होता है जो इतने कम समय मे मै देख नही पाई। हाँ इसका लॉन ज़रूर अलग था। लॉन में  बड़े-बड़े तीन “शटलकॉक्स” बने थे जिसके साथ लोग तस्वीरें ले रहे थे। हम भी पहुँच गए वहाँ।
सत्यार्थ कॉक के ऊपर चढ़ने का जिद्द करने लगा । हम पुत्र मोह मे घिरे दो देसी लोग जो सामने छोटे से बोर्ड पर लगा नोट पढ़ रहे है कि इसपर चढ़ना मना है फिर भी बेटे को चढ़ा दिया की दो-चार मिनट मे क्या होगा ?
पर वही है ना, ई अमेरिका ऐसे ही अमेरिका नही...... इसके चारों तरफ़ कान -आँख है। जैसे सत्यार्थ को बिठाया उधर से एक स्पीकर से आवाज़ आई “ कृपया बच्चे को नीचे उतार ले, सावधानी कारण से इसपर चढ़ना मना है” और हम लाज से पानी-पानी हो गए।

इसके बाद हम इसके ठीक सामने एक पार्क मे गए जहाँ दो बड़ी-बड़ी कुर्सियाँ रखी थी। इतनी बड़ी की हमें भी उचक के बैठना पड़ा। उसके पीछे फ़ाउंटन और रिवर वॉक था। यहाँ कुछ देर समय बिताने के बाद हम “नैशनल वर्ल्ड वॉर म्यूज़ीयम एंड मेमोरीयल” गए । शाम के सात बज चुके थे म्यूज़ीयम बंद हो गया था। वैसे भी इसे हमें बाहर से ही देखना था कारण ऐसा पहले भी कई जगह देख चुके थे और कम समय दूसरी चीज़ें जो नही देखी थी वो देखना था। यहाँ एक क़ुतुबमीनार जैसा पोल लगा है। वहाँ कुछ फ़ोटो ली। कुछ सैनिकों की मूर्ति निहारी और फिर चल पड़े सामने “यून्यन स्टेशन “ की तरफ।

यून्यन स्टेशन बहुत बड़ा तो नही है पर रंगीन लाइट की रौशनी में बहुत ख़ूबसूरत लग रहा था। 1914 मे ये शुरू हुआ था और 1985 मे यहाँ से ट्रेन चलनी बंद हो गई। अभी इसके अंदर रेल म्यूज़ीयम, आइरिश म्यूज़ीयम और कुछ शोज़ होते है। साथ ही इसमें ही कंसस का पोस्ट ऑफ़िस भी है। इसके सामने जो फ़ाउंटन है वो घड़ी-घड़ी बिल्डिंग के जैसा ही रंग बदलता है। यहाँ हमलोग क़रीब एक  -डेढ़ घंटे बैठे रहे। ठंडी हवा और सुंदर नज़ारे ने हमे बाँध लिया था। फिर पार्किंग के समय को देखते हुए हम यहाँ से निकले थोड़ा आस-पास चहलक़दमी की और वापस गाड़ी तक आ गए। फिर वही बार्बीक्यू खाने गए होटल पहुँचे तो शतेश राम को आइक्रीम खाने का मन कर दिया। अच्छी बात ये थी कि हमारे होटल के पास ही “डेनिस” था। रात को एक बजे हम हॉट फ़ज खाने गए और इस तरह आज का दिन पूरा हुआ।

अगले दिन हमे फ़ार्म की सैर करनी थी और वहाँ के किसान से मिलना था। हमलोग सुबह-सुबह तैयार होकर पहले  जे सी  निकोल्ज़ मेमोरीयल फ़ाउंटन देखने पहुँचे। फिर वहाँ से अब तक का सबसे ख़ूबसूरत पुस्तकालय देखा और निकल पड़े शरयोककस फ़ार्म की तरफ़ । यहाँ पहुँचने पर मालूम हुआ कि फ़ार्म हम ख़ुद घूम सकते है अभी कोई ट्रिप नही फ़ॉल से पहले। हम ख़ुद ही थोड़ी देर घूमे। वहाँ से एकलौते स्टाफ़ जेम्स से थोड़ी बात-चीत की और फिर घर के लिए निकल पड़े।

Wednesday, 9 October 2019

आयोवा !!

कल के विराम के बाद अब आगे की यात्रा पर निकलते है ।जैसा कि मैंने बताया की हमलोग देर रात होटेल पहुँचे और खाने का जो हाल हुआ वो क्या ही कहे ? सारे दुकान लगभग बंद हो चुके थे ।ऐसे मे रास्ते मे ट्रक का एक बड़ा सा स्टॉपेज बना है जिसपर लिखा है वर्ल्ड का सबसे बड़ा ट्रक स्टॉपेज, उसके अंदर कुछ कुछ-पीने की दुकाने थी ।जब हम अंदर गए तो सारी दुकाने खुली थी बस हमारा शाकाहारी वाला ऑपशन बंद था ।यानि जो पिज़्ज़ा की दुकान थी वो बंद हो गई थी । सर्च करने पर एक दुकान कुछ बीस मिनट दूर पर मिली जिसकी रेटिंग तो ज़बरदस्त थी पर उसका पिज़्ज़ा ऐसा की पानी और कोल्डड्रिंक के साथ जैसे-तैसे मैंने एक स्लाइस खाई ।अब तक मुझे भयंकर एसिडीटी हो गई थी ।सिर ज़ोर से  दुखने लगा था और इसी के साथ होटल पहुँचते ही कल आराम से निकलने का प्लान हुआ।

अगले दिन भी सिर मे हल्का दर्द ही था ।शतेश बोले दवा लेकर आराम करो । कुछ बारह बजे के आस-पास मुझे थोड़ा ठीक लग रहा था तो फिर हमने निकलने की तैयारी  करने लगे ।अभी सबसे पहले ठीक से खाना खाना था । हमने एक इंडियन रेस्टोरेंट ढूँढा और वहाँ पहुँच गये ।खाना जब तक आता हम आगे का प्लान बनाने लगे और ऐसे मे तय हुआ कि अब धूप मे खेत घुमने जाएँगे तो और बीमार पड़ जायेंगे ।इसी बीच खाना आ गया ।भूख तो लगी ही थी तो सब भूल कर खाने पर टूट पड़े ।पेट से थोड़ा ज़्यादा ही खा लिया और अब मन दू कैसा तो होने लगा  । मैंने इनसे कहा “ग्रेटो” भी अब छोड़ ही देते है  । इन्होंने कहा -अरे चलो चलते है  ।तुम्हारा यहाँ आने का दूसरा बड़ा कारण तो यही था ।आराम से रुकते -रुकाते चलते है ।और इस तरह हमलोग ग्रेटो पहुँचे ।सच बताऊँ यहाँ अगर नही आते तो सच मे ये यात्रा अधूरी रहती ।अब तक तबियत -पानी भी ठीक हो गई थी ।

रंगीन पत्थरों से बनी एक छोटी सी इमारत ऐसे सज रही थी जैसे कोई ताज हो ।इसके बारे मे कहा जाता है कि ये दुनिया का सबसे बड़ा फोसिल, मिनरल, शेल और स्टोन से बना ग्रेटो है  ।वर्ल्ड वंडर्ज़ मे इसका भी नाम जुड़ा है।
इसको बनाने की शुरुआत “फादर पॉल डेब्बेरस्टीन” जो कि एक जर्मन थे उन्होंने ने की थी  ।एक बार वो बहुत बीमार पड़ गये  । तब उन्होंने ने “वर्जिन मेरी” से प्रार्थना कि की, अगर मै ठीक हो गया तो आपके लिए एक आश्रम बनाऊँगा  । और यही आश्रम “श्राइन ओफ द ग्रेटो ओफ द रिडेम्प्शन” कहलाई  ।
।ये जगह इतनी शांत और ख़ूबसूरत है कि यहाँ घंटो बिताया जा सकता है ।तस्वीर मे आपको इतनी सुंदर ना दिखे मेरी बुरी फोटोग्राफ़ी की वजह से पर इसको आँखो की लेंस से देखना अद्भुत है  । इसके दूसरी तरफ़ एक छोटा सा चर्च है जिसमे पॉल पादरी थे ।
हमारी ख़ुशक़िस्मती थी कि जब हम गए तो अब वहाँ का एकलौता शिल्पकार ग्रेटो मे पत्थर जड़ रहा था । उससे कुछ देर बातें हुई । उसने हमें बताया कि इसमे लगने वाले पत्थर विश्व भर से आते है । साथ ही उसने हमे तीन छोटे-छोटे  पत्थर भी दिए यादगार के लिए ।उसने मुझे एक “चमकीला नीला पत्थर” दिया इस ग्रेटो मे जड़ने को ।अब इस ग्रेटो मे मेरी मज़दूरी भी शामिल हो गई है :)
 ये अब भी बन ही रहा है । उसने हमे बताया कि आठ साल की उम्र से वो यहाँ काम कर रहा है और हमेशा करता रहेगा कारण उसके बाद इस काम को बढ़ाने वाला अभी कोई नही दिखता ।

यहाँ से हमलोग आयोवा के कैपिटल आए “ देस मोईनेस”  वहाँ स्टेट बिल्डिंग देखी । फिर वहाँ से प्रमुख “पापा जॉनस” पार्क गए जो कि डाउन टाउन के बीचों -बीच है । इस पार्क मे कुछ 20 ऑर्ट पिसेस लगी हुई है  । यहाँ शाम को अच्छा वक़्त गुज़ारा जा सकता है ।

और इस तरह मक्को( कॉर्न) का शहर कहे जाने वाला आयोवा जो कि आपनी उपजाऊँ मिट्टी के लिए जाना जाता है की आज की यात्रा पूरी हुई  । आगे खेत, नेब्रास्का और कंसस की बातें.....

Tuesday, 8 October 2019

घर आने से पहले इस यात्रा का होना मेरे लिए जरूरी था। कारण  पिछले साल जब घर पर रही उन दिनो ऊख यानि गन्ने की पुरजी भज रही थी। पुरजी भजना मतलब आपके गन्ने का चीनी मिल तक पहुँचना और उनके वजन और प्रजाति के अनुसार हिसाब-किताब होना। भाई के घर पर ना होने से हिसाब-किताब का ज़िम्मा मेरे ऊपर ही आ गया। इससे कई नई चीजे जानने को मिली। फिर मै और ज़्यादा जानने के लिए गन्ने से जुड़ी एक किताब भी पढ़नी शुरू की थी पर वो पुरी ना हो सकी।

इन सबसे इतर,  उन्ही दिनो मेरे दिमाग मे ये बात चलने लगी की आख़िर अमेरिका ऐसी क्या तकनीक प्रयोग मे लता है कि यहाँ का मक्का, सोयाबीन, गेहूँ लहलहता रहता है। मेरे बटईया वाले किसान की तरह हर बार रोता नही की “बरखा ना भईल या ज़्यादा बरखा से फ़सल ख़राब हो गईल।”
मैंने सोच लिया था कि इस बार ये “एपल पीकिंग या पंपकिन पैच” नही जाना। इस बार किसी ऐसी जगह जाऊँगी जहाँ खेत ही खेत हो।  वहाँ के किसी किसान से बात हो तकी समझने मे मदद मिले। 

ऐसे में मै तय किया “कंसस और आयोवा” जाने को। वैसे इंडियना की भूमि अपने आप में उपजाऊ मानी जाती है। टेक्सस, कलीफ़ोरनिया, कंसस के बाद यही का नम्बर आता है पैदावार के मामले मे। पर संयोग ये रहा कि टेक्सस में मैंने खेतों मे तेल के कुएँ देखे तो कलीफ़ोरनिया मे रुकना कम होने से आते-जाते मक्का के खेत। इधर भी आते-जाते मैंने सिर्फ़ बड़े-बड़े खेत देखे जिनमे मक्का या सोयाबीन लहलहा रहे होते। पर इन खेतों मे कभी कोई  किसान नही दिखता। 

शतेश को कंसस जाने की कोई खास इक्षा ना थी। यहाँ घुमने के लिए भी कम ही लोग जाते है। जो जाते भी है या तो वो वहाँ से पास रहते है या उनका कोई क़रीबी उधर रहता है। ऐसे मे 9-10 घंटे की ड्राइविंग शतेश को परेशान कर रही थी। पर वही है ना जब इंसान प्रेम मे होता है फिर सब कुछ दूसरे की ख़ुशी होता है:)
ऐसे में मैंने भी ढूँढ-ढूँढ कर वहाँ देखने योग्य जगहे निकली तकी इनकी ख़ुशी भी यहाँ आ कर बनी रहे। साथ ही मैंने “ द स्ट्रैट स्टोरी” फ़िल्म के कुछ हिस्से भी इन्हें दिखाई तकी जवान का इंट्रेस्ट बना रहे यहाँ आने में। 

“द स्ट्रैट स्टोरी” फ़िल्म जब देखी थी, इसके बैकग्राउंड संगीत और आयोवा को देख मंत्रमुग्ध हो गई थी। सोचा था काश यहाँ जा पाती और वो काश आयोवा के “ग्रेटो (मंदिर/आश्रम) ने पुरी की। इस फ़िल्म में भी ग्रेटो की हल्की सी झलक दिखाई है। आयोवा में इससे ज़्यादा ख़ूबसूरत सिर्फ़ खेत ही है।

हमारी इस यात्रा में सबसे ज़्यादा दूरी भी इस ग्रेटो की ही थी। घर से चलने से पहले हमने तमाम रास्ते देख लिए थे यहाँ तक जाने को पर, ये फिर भी सबसे दूर किसी कोने में था। कुछ चीज़ें काट -छाँट कर हमने यहाँ जाने का प्लान किया। पर वहीं है कई बार डेस्टिनेशन भी आपकी परीक्षा लेती है।

पहले ही दिन जब हम घर से निकले इंडीयाना पार करते ही रोड कंस्ट्रकशन मिलने लगा। स्पीड ऐसे ही कम हो गई। आगे जाने पर हाईवे पर आधा काम तो बीच में किसी गाड़ी की एक्सिडेंत ने हाईवे को ही जाम कर दिया। ऐसे में हम ढाई-तीन घंटे जाम में फँसे रहे। धीरे सरकती गाड़ियों से शतेश को एक इकजीट दिखा।
मुझसे बोले तपस्या, आगे बहुत जाम है अभी भी। फोन में पुरी लेन रेड दिख रही है। जाने कब तक फँसे रहेंगे ?
आगे जाने से दूसरा रास्ता बता रहा है जीपीएस  जो कुछ देर बाद हाईवे से जुड़ जाएगा।

और इस तरह हमारी गाड़ी खेतों के बीच एक पतले रास्ते पर चलने लगी। रास्ता टूटा-फूटा ही था। रोड के किनार पड़ी मिट्टी हमारी गाड़ी के चक्को के साथ होली खेल रही थी। पहली बार अमेरिका में हमने धुल उड़ाते गाड़ी चलाई । और तो और अब जीपीएस का नेटवर्क भी ग़ायब। समझ नही आ रहा था कितनी दूर ऐसे ही जाने पर हाईवे मिलेगा। एक तरफ़ खेतों के बीच गाड़ी का चलना दूसरी तरफ़ सूरज की किरणों का क़रीब-क़रीब फ़सलों का छूना। कभी रोमांच तो कभी भटकने की हल्की परेशानी, ऐसे में एक चौराहा मिला और उसपर लगे रोड के नाम से शतेश को याद आया की इसी रोड की तरफ़ मुड़ने से हाईवे मिलेगा। 
और इस तरह खेत, कई जानवर, इनके बीच बने कुछ घर, टूटी बेकार गाड़ियों को झाड़ी के किनारे खड़े देखते-देखते हम हाईवे तक पहुँचे। यहाँ से आगे जाम नही था। पर इनसब में हमारे होटेल पहुँचने का टाइम गड़बड़ा गया। लगातार गाड़ी में बैठे रहने से मेरे सिर में भी हल्की दर्द शुरू हो गई और इसके साथ मैंने इनसे कहा; ग्रेटो जाने का प्लान कैंसिल करते है। 

आगे क्या हुआ वो कल .....,

Monday, 30 September 2019

बाढ़!!!

हर साल की तरह इस बार भी बिहार में बाढ़ आई है, और इस बार इसने बिहार की राजधानी पर जम कर राज किया है। मानवीय भावना कह रही है कि, क्या हुआ तपस्या जो तुम इतनी क्रूर हो रही हो ? बाढ़ के राज पर जम शब्द का प्रयोग कर रही हो ?
अब क्या बताऊँ कि मैं इस पीड़ा को हर साल मानसिक तौर पर झेलती हूँ। मेरी माँ , मेरे परिवार के लोग, मेरा गाँव हर साल इस त्रासदी को झेलता है। तब तो कोई मंत्री-संतरी सुध नही लेते। आज उनका घर डुबा तो चंद घंटो में उन्हें निकाल लिया गया। उन परिवार का क्या, जिनके घर से हर साल कोई ना कोई इस बाढ़ की बलि चढ़ता है.......

हर साल मालूम रहता है कि बाढ़ आएगी पर सुरक्षा का इंतज़ाम खाना-पूर्ति भर होता है। सरकारी राहत दल भी अति की स्थिति में हीं पहुँचती है। वो तो धन्य है बिहार के लोग और उनका साहस कि बिना सरकारी मदद के वे हज़ारों जान हर साल बचाते है। पर आख़िर कब तक ये लोग, लोगों का जान बचाते रहेंगे ?
आख़िर कब तक सामाजिक सहयोग से “चमकी बुखार” का ईलाज होता रहेगा? क्या ने इतने सालों से चली आ रही बाढ़ का कोई निदान भी सरकार सोचती है या यूँ ही हर साल सरकारी ख़ज़ाने से बस मुआवज़ा तक हीं सोचा है ?
मुझे पुरा यक़ीन है कि इस बार भी बाढ़ के जाने के बाद फैली महमारी का कोई इलाज बिहार सरकार के पास ना होगा....

मेरा गाँव तो ख़ैर बरसों से बाढ़ सहने मे अब निपुण हो गया है। उसे बहुत ज़्यादा जान की चिंता नही होती। हाँ फ़सलों के जाने का दुःख सबसे ज़्यादा होता है। अगर बाढ़ से बच गए तो साल भर परिवार का पेट कैसे भरेगा  ये चिंता ज़रूर होती है। हालाँकि गाँव-देहात की यहीं तो ख़ूबसूरती है कि यहाँ भूखे कोई नही मरता.....

बिहार के महामहिम और कुछ मंत्री साहिबान  ने कहा, “ नेचर पर किसी का वश नही और सब “हथिया नक्षत्र”  का दोष है।
माननीय महामहिम, हम जनता भले साल दर साल  हर तरह की त्रासदी से जूझते हैं पर हमारे दिमाग़ में गोबर-कादो नही भरा.....
हम अच्छी तरह जानते है कि इस आपदा में हमारा भी कहीं ना कहीं हाथ है। हम अपने ज़रूरतों के आगे चंपारण के वन को बली देते जा रहें है, नदियों को भरते जा रहें हैं,  तालाब को ढँकते जा रहें हैं पर सब कुछ केवल नक्षत्र पर छोड़ देना ये हमारे संस्कार नही।

हम किसान तो हथिया नक्षत्र को फसल के लिए वरदान मानते है। हमें तो इसके आगमन का इंतज़ार होता हैं। तभी तो कहते है,

“जब ना बरसीहें हस्त (हथिया)  त का करिहें गिरहस्त”

इस बार से तो कुछ सीख ले। अबकि आपका भी घर डुबा है। बेकार का रोना-धोना छोड़ कर कम से कम इस दिशा में कोई कारगर उपाय कीजिए मंत्री महोदय। ख़ाली पर्यावरण विद बनने और ज्ञान देने से कुछ नही होगा।

जाते -जाते आपको बता दूँ कि, आपकी दया रूपी दी हुई बाढ़ पीड़ित राशि से कुछ नही होता। गाँव के लोग उससे मोबाईल फ़ोन और रंगीन टीवी ख़रीद लेते है।
क्यों?
क्योंकि सब को मालूम है, “अगले साल भी तो यहीं होना है”

Friday, 13 September 2019

मिलवाकी आगे की यात्रा !!!

पितरपक्ष शुरू हो इससे पहले मैं अपनी मिल्वॉकी का सफर आपके साथ पूरा कर लूँ। कारण इस ट्रिप पर भी हमने साईकिल की सवारी की और इसे करते समय आचानक मैं गुनगुनाने लगी “ पिया मेंहदी लिया द मोती झील से जाके साईकिल से ना”
पिया मेरे, मुझ नादान पर हँसे की,
 “सुनअ हमरी तपस्या ! रानी हमरी तपस्या, माँग बड़ा बा जी राउर अजीब जी, ई त लेक मिशिगन जी ना “

तो भादो की मेंहदी के साथ आगे बढ़ते हैं। आर्ट म्यूजियम से निकल कर हमलोग डाउनटाउन की तरफ़ चल पड़े। पैदल चल सकतें हों तो, सबकुछ क़दम नापने की दूरी भर था। आर्ट म्यूजियम के ठीक सामने “बरुइंग हाउस” था जो आज बंद था। यहाँ का डाउनटाउन पुराने नए बिल्डिंग और कुछ आर्ट पिसेज से सज़ा था। साथ हीं यहाँ के बैंक की बिल्डिंग बड़ी ख़ूबसूरत-ख़ूबसूरत थी। कई तो महल जैसी।

डाउनटाउन के बाद हमलोग “पब्लिक मार्केट” गए। एक छत के नीचे तमाम खाने-पीने की चीज़ें पर वेज के आइटम काफ़ी कम। यहाँ हमने बहुत कम समय गुजारा। बस एक चक्कर भर मुश्किल से लगा पाए, कारण सत्यार्थ भीड़ और कम जगह की वजह से परेशान कर रहा था। बाहर निकल कर हम डंकीन डोनट पहुँचे। वहाँ फिर से कॉफ़ी और हैस ब्राउन लिया। थोड़ा सिर दुखने लगा था। एक छोटे से कॉफ़ी -पान के ब्रेक के बाद हम आगे की ओर निकल पड़े।
घड़ी पर नज़र गई तो स्मार्ट रानी आज अभी हीं, सोलह हज़ार कुछ क़दम बता चुकी थी। सत्यार्थ भी थक कर सो गया था।

हमलोग  “समरफ़ेस्ट” के लिए रास्ता ले चुके थे। ये एक सालाना होने वाला म्यूजिक फ़ेस्टिवल था। जैसा कि कल मैंने बताया था। यहाँ टिकेट $23 पर पर्सन। बच्चे की इंटरी फ़्री थी पर उनका स्ट्रोलर लेना था अलग से । जिसका रेंट अलग से  $20 लग रहा था।
मैं टिकेट काउंटर से कुछ दूर खड़ी थी। शतेश मुझसे पूछने आए कि क्या करना है स्ट्रोलर का ?  तभी एक पतला -दुबला अफ़्रीकन-अमेरिकन आदमी आया “क्या आपको इंटरी टिकेट चाहिए ? “
इन्होंने पूछा कितने का ?
जबाब मिला बीस डॉलर का। और इस तरह हमने अमेरिका में पहली बार ब्लैक टिकेट ख़रीदा। साथ ही इंटरी गेट पर हमने अपने स्ट्रोलर का साईज छोटा बता कर उसे अंदर ले जाने की अनुमति भी ले ली।

 अंदर लोग हीं लोग। कई जगह स्टेज बने थे। खाने-पीने के स्टोल के साथ बच्चों के कुछ गेम भी थे। सामने लेक में एक बड़ी सी गुलाबी यूनिकॉर्न तैर रही थी। आज शुक्रवार होने की छः बजे तक हीं संगीत का प्रोग्राम था। उसके बाद आप यूँ ही मेला घूमिए। कुछ लोकल आर्टिस्ट को सुनिए। हमने डेढ़-दो घंटा यहाँ बिताया और फिर निकल पड़े गाड़ी पार्किंग की तरफ़।
बाहर निकलने कर पैदल जाते समय एक आदमी इसी मेला का $14 का टिकेट बेच रहा था :)
हम लेक के किनारे बने पवमेंट से गुज़रते हुए यहीं बात करते जा रहें थे की आख़िर इस मेला का सही टिकेट कितने का होगा? इस आदमी ने कितने में लिया होगा ? उसे इस कम क़ीमत पर क्या फ़्यादा होगा वैगरा -वैगरा...
तभी हमारी नज़र इस पवमेंट से गुज़रती कुछ साईकिल पर पड़ी।

अभी अंधेरा नही हुआ था। साथ हीं हमारे पास समय भी था तो सोचा होटेल जाने से अच्छा साईकिल की सवारी कर लिया जाए। हालाँकि जब हम साईकिल रेंट करने पहुँचे तो मालूम हुआ की ये लास्ट ट्रिप है और 45 मिनट के अंदर हमें साईकिल लौटानी होगी। कारण आठ बजे इनका दुकान बंद हो जाता है।
मज़े की बात ये कि ये दुकान सिर्फ़ तीन लड़कियाँ संभाल रही थी। साईकिल निकालना, स्टैंड में लगाना, दुकान में रखना सब यहीं कर रही थी।

वैसे अंतिम यात्री होने की वजह से हमें साईकिल आधे क़ीमत पर रेंट पर मिल गई। पूरे दिन का किराया कुछ $28 था। हमें $14 में मिली गई।
वैसे हर तरह की साईकिल की रेंट अलग थी। इनके पास पाँच लोगों को एक साथ चलाने वाली तक साईकिल थी।

और इस तरह साईकिल से उतर कर हम कार तक पहुँचे। डाउन टाउन से थोड़ी दूर एक हिंदुस्तानी रेस्तराँ में ज़बरदस्त खाना खाया और होटेल पहुँच गए। अब आप भी आराम कीजिए। तस्वीरों के साथ आँखों से सैर कीजिए:) 

Thursday, 12 September 2019

मिल्वॉकी !!!!

 इधर कई महीनों से मैं अकेली हीं घूम रही हूँ आपलोग पीछे छूटते जा रहें है। तो चलिए आज “विस्कॉन्सिन राज्य” के “मिल्वॉकी” शहर की सैर पर चलते है।
लेक मिशिगन के पश्चमी छोर पर बसा ये शहर मुझे बड़ा ख़ूबसूरत लगा। इसकी ख़ूबसूरती मुझे सबसे अलग इस मामले में लगी कि, शहर का एक भाग बहुत पुराना है तो दूसरा चमचमता। मानो दो सदी को आप एक साथ देख रहे हो। सड़के यहाँ की उतनी ठीक नही कारण यहाँ बर्फ़ बहुत पड़ती है। साथ ही कई इमारतों की मरम्मत भी हो रही थी जो कि, ठंड आने के पहले की तैयारी जैसी लग रही थी।

हमलोग यहाँ “जुलाई पाँच” को गए थे। उस वक़्त यहाँ सालाना होने वाला म्यूज़िक फ़ेस्टिवल चल रहा था। जिसने मानो शहर भर में रौनक भर दिया हो। ग्यारह दिन चलने वाला ये फ़ेस्टिवल पूरे दिन चलते रहता है। शाम को छः बजे इसका समापन होता है। तो हमने सोचा पहले बाक़ी की चीज़ें जैसे “आर्ट म्यूजीयम”  “हार्ली  डेविड्सॉन म्यूजीयम ” और “मिल्वॉकी पब्लिक मार्केट” घूम ले फिर आराम से संगीत का आनंद लिया जाए।

शिकागो से हमलोग हार्ली- डेविड्सॉन म्यूज़ीयम का अड्रेस लगाकर निकले। क़रीब डेढ़ घंटा का सफ़र था। शहर में पहुँच कर हमने सबसे पहले एक गुजराती रेस्ट्रोरेंट में पेट पूजा की। पर ना तो इसमें पूजा का कही पता था ना पेट का। खाना बड़ा बेकार । पानी पी -पी कर कुछ कौर अंदर भेजा और निकल पड़े मोटर साईकिल की भीड़ में।

हार्ली- डेविड्सॉन म्यूज़ीयम में तीन तरह की टिकेट मिल रही थी। पहला ऑडीओ गाइड $4 , दूसरा हाइलायट टूर $8 पर पर्सन और तीसरा पूरे म्यूज़ीयम का टूर $22 पर पर्सन।
हमारे पास सिर्फ़ एक दिन था घुमने को तो हमने तीन घंटा यही ना बिताना का सोच कर हाइलायट टूर किया। अंदर कुछ गाड़ी और उसके  अस्थि -पंजर , कुछ तस्वीरें,  कुछ ड्राइवर के कपड़े और कई सारी  पुरानी नई गाड़ी रखी थी। यहाँ कुछ हमने डेढ़ घंटा बिताया और फिर निकल पड़े आर्ट म्यूज़ीयम की तरफ़।

आर्ट म्यूज़ीयम यहाँ से बाई कार कुछ बीस मिनट की दूरी पर है। इसकी पार्किंग आज म्यूज़िक फ़ेस्टिवल को लेकर बड़ी महँगी थी। $35 पूरे दिन की। हमारा तो लगभग आधा दिन कट गया था। आधे के लिए इतना देना मुझे ठीक नही लग रहा था। मैंने शतेश को गाड़ी मुड़ाने को कहा। ये थोड़े झल्लाए कि ये भी पार्किंग चली जाएगी तुम्हारी बचत के फेर में। पर मैंने कहा कोई बात नही थोड़ा आस-पास देख तो ले, नही कहीं पार्किंग मिला तो ठीक है दूर हीं कहीं पार्क करके आयेंगे। और देखिए हमारी ख़ुशक़िस्मती की, ठीक इस म्यूज़ीयम के पीछे $10 की पार्किन मिल गई। थोड़ा पीछे होने से शायद लोगों को इस पार्किंग का मालूम कम था। यहाँ कई जगह भी ख़ाली थी। मेरा तो मन कर रहा था मैं उस पार्किंग के गेट के पास खड़े होकर लोगों को बताऊँ की पीछे चले जाओ। उधर जगह भी है और सस्ता पार्किंग भी।

ख़ैर यहाँ से गाड़ी पार्क कर हमलोग पीछे के रास्ते आर्ट म्यूज़ीयम पहुँचे। चिड़िया के पंख सा बना ये म्यूज़ीयम बड़ा हीं सुंदर था अंदर से। वैसे ऐसी ठीक आकृति न्यू यॉर्क के 9/11 मेमोरीयल की भी बनी है। इसका टिकेट पर पर्सन $19 है। तीन-साढ़े तीन घंटा काफ़ी है इसे देखने के लिए। बाक़ी आप कला प्रेमी है तो पूरा दिन भी गुज़ार सकतें है।
 मुझे यहाँ के “ग्लास वाले आर्ट “ ज़्यादा अच्छे लगे। साथ हीं ऐसा मैंने यहाँ बहुत कम हीं देखा था। बाक़ी सब दूसरे आर्ट म्यूज़ीयम जैसा हीं था। कुछ पेंटिंग, कुछ लोहे के ड्रेस या मुखौटा, कुछ लकड़ी और पत्थर के आर्ट, कुछ रेड अमेरिकन कल्चर की चीज़ें आदि।

इस बिल्डिंग की ख़ास बात ये थी कि, इसके अंदर की दीवारें बिल्कुल सफ़ेद दूधिया सी और इनसे जुड़े शीशे सी ग्रीन से। साथ ही बाहर लेक का नज़ारा एक अद्भुत वातावरण बना रहा था। ऐसा लग रहा था अंदर और बाहर आप समुन्दर के बीच खेल रहे हो।
यहाँ पर खाने-पीने की अच्छी सुविधा थी। बक़ायदा ऊपर नीचे फ़्लोर पर रेस्ट्रोरेंट खुले थे। हमने तो सिर्फ़ कॉफ़ी और ओनियन रिंग ली। आराम से कॉफ़ी को चाय समझ चुस्की लेते रहे और बाहर देखते रहें। सत्यार्थ सामने सोफ़ा पर कूदता रहा, ओनियन रिंग कुतरता रहा......
आज आप लोग भी यहीं आराम करें, कल आगे.....

Wednesday, 11 September 2019

धरणी !!!

बड़ी उमस थी आज। ऐसा लग रहा था कि सब कुछ उतार कर फेंक दिया जाए। ऐसा लग रहा था कि कुछ बारिश की बूँदे  काश पड़ जाती उनके मन पर तो क्या हीं होता ?
बारिश हुई और ख़ूब हुई। दोनो के मन की उमस अब शांत थी। उन्हें मिलना था उसी जगह जहाँ  दो नीले-पीले रट्टामल तोता उनका हमेशा की इंतज़ार कर रहें थे।

वे आए और कुछ इस तरह से बैठे कि तोते से इस बार अपनी पीठ ना सटा सकें। अच्छा हुआ जो तोता से सटे नही... वरना कुछ बूँदे जो उसपर चिपकी थी इनसे चिपक जाती।
यादों की कई बारिश उनको भींगो जाती। फिर वहीं तोते वाली छूत  “रटा-रटाया जीवन”
वे कुछ ऐसे बैठे जैसे आगे ज़मीन की तरफ़ झुके जा रहे हो। कुछ ऐसे बैठे कि दोनों के पैर गुना-भाग मे लगे हुए हो।

कुछ दूर पर एक पेड़ के नीचे एक बूँद। एक पत्ते पर ऐसे पड़ी थी जैसे मानो वो उस पेड़ की वो आख़री बूँद हो। एक पत्ती की नोक के सहारे झूल रही थी कब से। काँप रही थी हल्की हवाओं से। “पर सुई के नोक पर प्रेम कैसे टिकता ?”

बूँद एक हल्के से हवा के झोंके के साथ एक कटे-फटे पत्ते पर आ गिरी। ख़ुद को बिखरने के पहले समेटने लगी। ख़ुद को समेट कर गोल मोती सी बनी सिर उठाया तो देखा, दो आधे-आधे लोग उसमें एक हो रहें है। उनकी परछाईं उसमें पूरी हो रही है।
वो इतराई, मुस्कुराई। उस नुकीली पत्ती की तरफ़ ऊपर देखा तभी सामने उन चार पैरों में से दो उसकी तरफ़ बढ़े। उसे आधा घसीटते हुए आगे बढ़ चले। आधी बची हुई बूँद, दर्द से भरी फिर ख़ुद को समेटने लगी, मोती बनाने की कोशिश करने लगी। तभी बचे हुए दो दूसरे पैर फिर उससे घसीटते आगे बढ़ चुकें हैं। बूँद अब आधी-आधी उन जोड़ा पैरों के नीचे थी...

उन पैरों का रास्ता वहीं था “गुना-भाग” वाला। बूँद दो अलग-अलग क़दमों में पसरी कुछ इस तरह घसीटी जा रही थी मानो, उसे जीवन का रहस्य मिल गया हो। दर्द में भी अब वो मुस्कुरा रही थी। आज उसे अंतत: अपना सच्चा प्रेमी मिल रहा था।
आज उसका “भू” उसके इंतज़ार में बिछा हुआ था।
 आज से वो धरणी हो जाएगी...
धरणी। 

Monday, 9 September 2019

राधे-राधे !!!!

बीते शुक्रवार को राधाष्टमी थी। पर एक भी पोस्ट इस सिलसिले मे सोशल मीडिया पर नही दिखा। ये कुछ नया नही था मेरे लिए।  राधा को लोग कृष्णा अष्टमी के दिन हीं याद कर के कोटा पुरा कर लेते। इसी तरह रामनवमी को राम के साथ सीता का भी खाना पूर्ति कर दिया जाता है। सीता के जन्म पर तो बहुत ही कम लोग उत्सव मनाते है। नेपाल और बिहार के कुछ राज्यों में, अपनी बेटी होने का दवा कर पूजन कर लिया जाता है। उसी तरह मथुरा-वृंदावन- बरसाना के साथ इस्कौन राधा का जन्म मना कर अपना धर्म भर निभा लेता है। तभी तो जहाँ कृष्ण के जन्म पर दिन-रात का जश्न होता है राधा का जन्म को दोपहर तक निपटा लिया जाता।

वहीं कई बार देखती हूँ कि, कृष्ण के जन्म पर छोटी-छोटी  बच्चियों को भी कृष्णा बनाया जाता। इसमें कोई बुराई नही, अच्छा हीं लगता हैं देख कर पर क्या उनके माता-पिता को राधा की याद नही रहती ? या फिर उनको कृष्ण के व्यक्तित्व से ज़्यादा प्यार है। या वे नही चाहते कि उनकी बेटी का जीवन राधा जैसा हो। या फिर उन्हें नटखट कान्हा, जिसका सारा गोकुल दीवाना था, वैसी हीं छवि कहीं ना कहीं अपनी बेटी में पाना चाहते हो।
अगर ऐसा है तो फिर, उसी बेटी के एक -दो दीवाने को भी वे कैसे नही बरदस्त कर पाते। फिर क्यों उस बेटी को राधा  जैसा दंड दे दिया जाता है?

अपने इन अजीब सवालों से अलग मुझे उन मजनुओं के बारे में ख़्याल आ रहा है, जो कृष्ण को सिर्फ़ इसलिए पूजतें हैं कि, वे प्रेम के देवता हुए। पर उन्मे से किसी ने ये नही सोचा कि,  किसी के प्रेमिका को भाव नही दोगे तो वो मित्र होकर भी अपनी प्रेमिका के पीछे हीं भगेगा, तुम्हारा साथ छोड़ देगा। ये तो जग जाहिर है।
चाहें तो वें अपना ख़ुद का उदाहरण ले सकतें है।

ख़ैर, हर साल की तरह मैं त्योहार मानने के बाद पोस्ट लिख रहूँ हूँ। इस बार तो सत्यार्थ मेरा कृष्णा बना हीं नही तो राधा क्या हीं बनता। चलिए इसकी पुरानी तस्वीर हीं लगा देती हूँ। पर याद रखिए राधे के बिना श्याम आधे वाली बात....
राधे-राधे..... राधे-कृष्णा.....

Saturday, 7 September 2019

दोस्तों आज मैं आपको ऐसी जगह ले जाने वाली हूँ जहाँ जा कर आप थोड़ी देर के लिए निराशा से बाहर आ जायेंगे। हालाँकि इस जगह और जिस चीज़ को मैं देखने पहुँची थी इसके बारे में लोगों की अनभिज्ञता जान कर लगा ये सब कुछ पल का शोर-शराबा है। बाद- बाक़ी कुछ हीं लोग इसके बारे में तन्मयता से सोचते है।

ये जगह इंडियापोलिस के स्टेट कैपिटल बिल्डिंग का पार्क है। जहाँ पर आपको ढूँढने पर मिलेगा “मून ट्री”
जी हाँ मून ट्री। इसका क़िस्सा कुछ यूँ है-

जब  “अपोलो 14 मिशन 1971”  में किया जा रहा था तब अंतरिक्ष यात्री “स्टूअर्ट रोज़ा”  अलग -अलग प्रजाति के कुछ 500 पड़ो के बीज लेकर चाँद पर गए थे। वैज्ञानिक दल ये देखना चाह रहें थे कि माइक्रोग्रेविटी का पेड़-पौधों पर क्या प्रभाव पड़ता है। 
चंद्रमा से आने के बाद इन कुछ बचे हुए 100 बीजों का वैज्ञानिको ने अध्यन किया और फिर 1975-1976  के बीच इनको अंकुरुरित किया जाने लगा। फिर बाद में इन पौधों को जाँच परख कर अमेरिका के भिन्न राज्यों में भेजा। अमेरिका के अलावा  दूसरे देशों को भी उपहार के रूप में कुछ पेड़ दिए गए । 

अमेरिका के जिन राज्यों में ये पेड़ पहुँचे  उसमें एक राज्य इंडियापोलिस भी है। हालाँकि दुःख की बात ये है कि, 238,855 miles का सफर कर आए इन पेड़ों को अब कम लोग जानते है। यहाँ तक कि बड़ी मुश्किल से हम इसे ढूँढ पाए। ढूँढने से पहले मैं कुछ 10-11 लोगों से इसका पता पूछ चुकी थी। पर निराशा मिली। ऑनलाइन मैप से उस जगह तो पहुँच गए थे पर सामने खड़े चार पेड़ों ने कन्फ़्यूज़ कर दिया था कि, इनमे से कौन सा मून ट्री है। 

फिर यहाँ भी मैंने आते-जाते कुछ लोगों से पूछा पर किसी ने भी “मून ट्री” जैसा कुछ नही सुना था। एक ग्रूप जो स्टेट बिल्डिंग देखने आया था, मुझे लगा उसके गाइड को तो मालूम हीं होगा। दौड़ कर मैं उसके पास गई पर मालूम हुआ उनका कोई गाइड हीं नही था वे लोग किसी कैम्प के साथी थे और ख़ुद ही घूम रहे थे। उन्मे से एक लड़की ने झट से फोन निकाला और मून ट्री गूगल करने लगी तो मैंने कहा इसके बताए अनुसार मैं यहाँ तक पहुँच चुकी हूँ धन्यवाद आपका। अब लगता है आगे का रास्ता मुझे ख़ुद हीं तय करना होगा। वो मुस्कुरा कर बोली बेस्ट ओफ लक। और हाथ हिलाते हुए विदा के साथ मैं दौड़ कर पति और पुत्र के पास पहुँची। 

तबतक शतेश कुछ वीडीयो देख रहे थे। ये वीडीयो मून ट्री का था। जिसको तीन-चार बार देख कर हमने उन चार पेड़ों में से इस “चिनार” के पेड़ को ढूँढ लिया। और इस तरह हमारा मिशन मून ट्री पूरा हुआ।

कौन जाने “विक्रम” का भी सम्पर्क इसरो से हो जाए। अगर ना भी हो तो हमारे वैज्ञानिकों ने कोशिश तो की।होल-हल्ला से इतर मेरा मन रो पड़ा इसरो के वैज्ञानिको को रोता देख। उनको कैसा लगता होगा उसका अनुमान हम एक पोस्ट या चार बातों से नही लगा सकतें।

तो चलिए इसी के साथ आप कम से कम मून ट्री के दर्शन कर लीजिए। क्या पता कल ये ना रहें और हमें मालूम हीं ना हो की कहीं मून ट्री भी था।

Thursday, 29 August 2019

सुनो, अब मैं जाऊँ सोने ... नींद आ रही है।
इतनी जल्दी ? अभी तो ध्रुव तारा भी नही निकला....ना ही चाँद बादलों के आँचल में सोने गया। और फिर मैं भी तो जाग रहा हूँ।
तुम्हारी बात और है। मैं ठहरी कल्पनाओं के झूले पर झूलने वाली। जागते-जागते ये कल्पनाएँ झूठी सी लगती है। और तुम्हें तो मालूम है.....
हाँ बाबा मालूम है तुम्हें झूठ पसंद नही पर ये भी तो सच है कि नींद में आती हुई कल्पनाएँ भी तो झूठ हीं है।
यहीं तो है बाबू, झूठ पसंद नही पर प्यारे झूठ और ख़्वाबों  से कब इनकार है मुझे।

तुम्हें समझना सच में पहेली है मेरे लिए.....
अब प्यारा झूठ क्या होता है ? और तुमने झूठ पर भी ख़्वाब देख डाले हा-हा-हा.....

हो गया तुम्हारा हाँ ? तो सुनो,  प्यार झूठ वो जो तुम कहते हो कि, सोती हुई मैं नींद की बेटी सी लगती हूँ।
प्यारा झूठ वो, जब तुम कहते हो कि, तुम्हारे चेहरे के फ़्रीकलस अच्छे लगते हैं मुझे। प्यारा झूठ वो जब तुम कहते हो कि वाह “मालिनी राजुरकर” जी क्या गा रही है। ऐसे तमाम वो बातें जो हमने एक दूसरे में बदल लिया, चाहे वो मन से हो आत्मा से हो या शरीर से वो सब एक ख़ूबसूरत झूठ हीं तो है। ठीक उसी तरह जैसे  मेरी जाँ... मुझे जाँ ना कहो मेरी जाँ मेरी जाँ......... जान सदा रहती है कहाँ.....

चुप क्यों हो गई। पूरा करो ना इसे।
ना, मुझे नींद आ रही है फिर कभी। ओह, ऐसा भी क्या गुनगुना हीं दो, मेरी जाँ....
अच्छा तो लो सुनो,
 लाला ला ला ..हम्म हम्म ह ह .....मेरी जाँ ला-ला....हूँहूँ....
होंठ झुके जब होंठों पर..साँस उलझी हो साँसों में ....
दो जुड़वाँ होंठों की, बात कहो आँखों से
मेरी जाँ ला ..लाला हूँहूँ......
अब क्या आज्ञा है सोने जाने की रात के डेढ़ बज गए हैं। या आज भी ध्रुव तारा देखना हीं होगा हा-हा-हा....
 क्या हीं कहूँ तुम्हें मैं नींद की बेटी...
 अच्छा सो जाओ पर सोने पहले एक और गीत।
उफ़्फ़ ! अब नही गाऊँगी। अरे, तुम्हें कौन कह रहा है गाने को ? रुको एक मिनट।
हे भगवान ! तो इस भारी रात में तुम हुंकार लगाओगे हा-हा-हा.... माफ़ करो मैं जाग हीं जाती हूँ।
हो गया अब तुम्हारा तो लिए मेरी तरफ़ से ये ख़ूबसूरत गीत का लिंक आपके लिए। और हाँ डरिए नही इस बार आप मेरी पसंद पर जाने क्या कर बैठे....
अच्छा तो ये बात है ? फिर पेश किया जाए..
लिंक भेजा है..
हाँ मिला। तो साथ सुने ?
ठीक है चलो, स्टार्ट......
स्टार्ट।
जाग दिल-ए-दीवाना रुत जागी वस्ल-ए-यार की
बसी हुई ज़ुल्फ में आयी है सबा प्यार की
जाग दिल-ए-दीवाना......
ओह .... तुमने तो सच में नींद उड़ा दी। देखो तो कैसे रफ़ी साहब अंधेरी रात में हौले- हौले प्रेम को जगा रहें है। इतने साधना से जागना कि उसकी पुकार सिर्फ़ धीरे से दिल तक पहुँचे और दुनिया सोती रह जाए। कैसे कोई गा कर ज़ुल्फ़ से प्यार पहुँचा सकता है। क्या हीं कहूँ मैं तुम्हें... काश अभी इस वक़्त रफ़ी मेरे सामने होते तो मैं उनका गला चूम लेती।
और मैं होता तो....
तो क्या कुछ नही हा-हा-हा....
हाय रे निर्मोही,  रफ़ी को भी चूमा तो गले पर। क्या प्रेम है तुम्हारा मान गया....
किसी के प्राणवायु के द्वार को चूमना उसके आत्मा तक पहुँचने का रास्ता है बाबू। इसे सिर्फ गला ना समझो। एक द्वार है मन का आत्मा का ज्ञान का और जीवन का। यहाँ एक चुम्बन की गाँठ सारी मन्नते पूरा कर देंगी जनाब.....

अब सो जाए... गुड नाइट....
आहम्म....
जाग दिल -ए-दीवाना........




Wednesday, 21 August 2019

बादल की प्रेम कहानी !!!

उफ़्फ़ ! अब क्या है ? क्यों तुम ऐसे हो मुझे समझ नही आता....
जब भी बालों को मेंहदी से रंगती हूँ, जाने कहाँ से तुम आ धमकते हो। अच्छा ये तो बताओ कि तुम्हें ख़बर कैसी होते है ? 
ख़बर.... 
ख़बर तुम्हारे बालों की मेंहदी मुझ तक पहुँचाती है। काले केश और हरी मेंहदी कुछ ऐसे सुगंध भर देते हैं फ़िज़ाओं में की मानो नई श्रिसती का जन्म हो रहा हो। विनाश से हरियाली की तरफ़ खिंचतीं ये कुछ अलग सी ख़स्बू से मैं ख़ुद को रोक नही पाता और आ जाता हूँ तुम्हें सींचने...
मेरी तो कुछ समझ नही आती तुम्हारी ये बातें। सच में पागल हो तुम। 
पागल.... हाँ हूँ तो तभी तो तुम्हें ख़ुद को सौंपते हुए गाने का मन कर रहा है...

आप की महकी हुई ज़ुलफ को कहते हैं घटा
आप की मदभरी आँखों को कंवल कहते हैं

अच्छा जी तो फिर मेरी भी सुन लो,
मैं तो कुछ भी नही तुम को हसीन लगती हूँ
इस को चाहत भरी नज़रो का अमल कहते हैं....
 
तुम तो कहती हो मेरी नज़र काजल की डिबिया है फिर आज तुम्हें इनमे चाहत का असर कैसे दिखा? मुझसे आँखमिचोनी खेलने वाली लड़की, सच बताऊँ तो मन मेरा ख़ुशी से बावरा हुआ जा रहा है। मैं झूमना चाहता हूँ, चमकना चाहता हूँ, बरसना चाहता हूँ। जैसे “मीठा सा शोर दिल से कुछ और आता है कहते है लोग सावन में बौर आता है”

वैसे सच कहूँ तो मुझे भी तुम्हारा साथ अच्छा लगता है। बहुत प्यारा.... कई यादें, कई अरमान लेकर आते हो तुम। सबकुछ भूल, मन मेरा भींगने को करता है तुम्हारे साथ। एक नए लोक की कल्पना से भरी मैं तुम्हारे एक-एक अस्पर्स को महसूस करती हूँ। “ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें ,ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें “

तो फिर सुनो तपस्या, 
आज हम इश्क़ का इज़हार करे तो क्या हो
भरी महफ़िल में तुम्हें प्यार करें तो क्या हो

हा-हा-हा....अच्छा, जान पहचान से इनकार करें तो क्या हो। कोशिशे आप की बेकार करे तो क्या हो...

अरे सुनो तो,मस्तियाँ सी फ़िज़ा पे छाई है
वादियाँ राग में नहाई है। नर्म सब्ज़ पेड़ शोख़ फूलों ने 
मखमली चादरें बिछाई है।
आ छोड़ो शरमाना ऐसे मौसम में तबियत क्यों निहाल करती हो.....

तबियत निहाल से याद आया अब मुझे जाना होगा। वरना तबियत सच में निहाल हो जाएगी।

सुनो तो ,ज़िंदगी अब इन्हीं क़दमों पे लुटा दूँ तो सही
ऐ हसीन बुत मैं ख़ुदा तुझको बना दूँ तो सही
और कुछ देर ठहर और कुछ देर न जा
और कुछ देर ठहर ...

ना-ना अब और नही मुझे जाना हीं होगा।
ठीक है जाओ पर जाने से पहले दो पल को रुक जाओ। मैं तुम्हारा “बादल” अपनी बूँदों से तुम्हारे पाँव तो भर दूँ। देखूँ तो सही जाते हुए तुम्हारे पाँव मुझ में भींग कर क्या अल्पना बनाते है.... देखूँ तो सही मेरी बूँदे जो तुम्हारे पाँव की पायल बनी वो टूट के बिखर तो नही गई.... देखूँ तो सही तुम्हारे केश की गीली मेंहदी मेरी बूँदों के साथ क्या रंग ला रही है तुमपर....

तुम चली जाओगी परछाईँयां रह जाएँगी 
कुछ न कुछ हुस्न की रानाईयाँ रह जाएँगी |
धुल के रह जाएगी झोंको में बदन की खुशबू 
जुल्फ का अक्श घटाओं में रहेगा सदियों....


Sunday, 18 August 2019

तपस्या:- गंगा मईया के ऊँची अररिया तिवई एक रोयेली हो
हे गंगा मईया अपनी लहर मोहे दिहतू त हम डूबी मरती हो.......
हे गंगा अपनी लहर हू...... त हम...ला-ला....

तेज बाबू:- आई दादा, अमेरिका में आजे छठ था का जी?  हई देखिए हमरो गंगा किनारे का फ़ोटू। घुमने गए थे तो फ़ोटोग्राफ़र खैंच लिया। 
तपस्या:- कभी -कभी हमको लगता है कि एश्वर्या ठीके की। 

तेज बाबू:- कौन एसवरीया? हमार एक्स पत्नी?
तपस्या:- ना , ऐश्वर्या राय। अभिषेक की करेंट पत्नी। बोका.....

तेज बाबू:- अच्छा छोड़ो ना ये सब। ये बताओ कि क्या वहाँ भी गंगा है?  क्या वहाँ भी छठ होता है? अरे होता हीं होगा अबकि तो हमलोग जम्मू में भी छठ करने जाएँगे।
तपस्या:- हम्म, यहाँ गंगा तो नही पर कहीं-कहीं छठ होता ज़रूर  है। वैसे जम्मू में कौन सी गंगा है?

तेज बाबू:- है नही। अभी पिछले दिनो तुम्हारे कहने पर नोटबूक फ़िल्म देखी। ऊ जो बच्चा सब का स्कूल था वो गंगा नदी पर ही तो लग रहा था।
वईसे भी  छठ पूजा से गंगा जी का क्या मतलब।  कोई नदी, पोखर हो, कुछ केला का थम और घाट तैयार । लेकिन  तुम ई डूबने -मरने  वाला गीत क्यों गा रही थी।
तपस्या:- आपके अद्भुत ज्ञान और जम्मू में छठ करने की ख़ुशी से......

तेज बाबू:- अरे हम जादूगर है। भगवान भोले और राधा दोनो हम में वास करते हैं। बस ई तेजस्वीया हमरी बात नही समझता। समझायेंगे किसी दिन उसको ठीक से। सच बताएँ तो जब से सुशील चाचा बोले हैं कि, अब हमलोग को जम्मू में भी रोज़गार मिलेगा तबे से हमरी पार्टी भी उधर पहुँच रही है। शुरुआत छठें पूजा से होगा। वहीं पर एक ठेकुआ का भी स्टोल लगवा देंगे। बाक़ी स्टेशन पर चाय और लिट्टी तो बिकेगा हीं।

तपस्या:- हम्म, ठीक हीं है अपने यहाँ स्टेशन कहाँ?  रोज़गार कहाँ? रही बात छठ पूजा की तो वो यहीं हो तो ज़्यादा अच्छा हो तेज बाबू।
नज़र उठाइए तो ज़रा, अभी हर तरफ़ नदी ही नदी। घाट ही घाट दिखेगा। इतनी नदी की किसी का घर, किसी के पशु , किसी का खेत तो किसी की जान डूबी मरती सी जा रही होगी। ध्यान से सुनिएगा तो छठ का यहीं गीत आपको हर तरफ़ हाहाकाररूप में सुनाई दे रहा होगा।

कोई गा रहा होगा;
ना ही मोरा घर दुःख ना ही संतान दुःख हे ,
ये गंगा मईया देश हमार अति पिछड़ा, त बाढ़ ह सूखाड ह सरकार दुःख दोसर हे......

तेज बाबू:- हमको तो कुछ सुनाई नही दे रहा।
तपस्या:- देता तो यहाँ बैठे नदी का नज़ारा देख रहे होते.....
अच्छा है कुछ दिखाई नही देता, कुछ सुनाई नही देता, नही तो मेरी तरह गा रहे होते,

ये गंगा मईया अपनी लहर मोहे दिहतू त हम डूबी...  .......

Friday, 16 August 2019

किरदार !!!


किताबों से कभी गुज़रो तो यूँ किरदार मिलते हैं
गए वक़्तों की ड्योढ़ी में खड़े कुछ यार मिलते हैं

जिसे हम दिल का वीराना समझकर छोड़ आये थे
वहाँ उजड़े हुए शहरों के कुछ आसार मिलते हैं.....

जगजीत जी की आवाज़ से शुरू होती कुछ कहानियाँ। कुछ ऐसी जो दर्द को दर्द से काटती सी। बीते दिनों सुख रोग से पीड़ित रही। ऐसे में साँस लेना भी दूभर हो रहा था। खीज कर मैंने नाक को रगड़ कर कहा, भाड़ में जा ....
लाल-पीले हुए नाक को यू  हीं छोड़ उसका काम मैंने मुँह को दे दिया। पर होता है ना जिसका बंदर वहीं नचाए। अब जो नाक की नासिका हवा के साथ खेल खेलती वो भला कंठ की घंटी से जुड़ा मुँह कैसा कर सकता? हवा जाती और कंठी बज कर काँप जाती। इस मुँह ने तो अपनी घंटी बजा-बजा कर गले में दर्द पैदा कर दिया। अब गर्दन मुँह फुला कर कहने लगा की, मैं ऐसी ज़्यादती नही सहूँगा। एक तो तुमने मेरे दोस्त को भाड़ में जाने को कहा दूसरा कंठ को तुमने एक्स्ट्रा काम दे दिया। माना आत्मा रूपी देव का शरीर मंदिर है पर इसका मतलब क्या बार-बार घंटी बजेगा?  जाओ तपस्या अब तुम्हारा दाना-पानी बंद।

मैंने कहा ये बात है? अभी तुम्हें मालूम नही किससे पाला पड़ा है। रुको अभी बताती हूँ। जिस वायरस के दम पर तुम नाक -देह उछल रहे हो उसी का सफ़ाया कर देती हूँ। फिर देखती हूँ.......
ग़ुस्से में दराज़ खोला। सामने से एक डिब्बी निकाली। डिब्बी का ढक्कन खोला और एक पीच रंग की एक गोली निकाल गर्दन में धकेल दिया। लगभग एक घंटे बाद बाप-माई करते, पसीना-पसीना हुए गर्दन जी, नाक जी और ताप जी अपनी औक़ात पर आ रहे थे।

अब बारी थी अपने जीत का जश्न मानने की। निम्बू-पानी और चीनी का पैग बनाया। सोफ़े पर पसर कर टू वॉच लिस्ट देखने लगी। क्या देखूँ? क्या देखना रह गया है?
ऐसे में नज़र गई गुलज़ार की बनाई सीरियल “ किरदार” पर। एक से एक एपिसोड। पर मुझे सबसे अच्छा जगजीत जी की आवाज़ में इसका शुरू होना लग रहा था। जितनी बार उनके शब्दों को सुनती लगता कितना सच है ना......
कई बार तो सिर्फ़ गाने भर सुनती फिर आगे बढ़ती। हर एपिसोड लगभग  बीस-पचीस मिनट का है। सब की अलग कहानी है। मुझे जो सबसे अच्छा एपिसोड लगा वो  “ बेल निम्बू”  “रहमान के जूते” “हाथ पीले कर दो” और मुखबिर।

अगर आप भी देखना चाहतें हो तो यू टूब पर देख सकतें है। 

Saturday, 20 July 2019

अल्बमा !!!

अल्बमा, अमेरिका का एक ऐसा राज्य जो अमेरिका के इतिहास में कई तरह से महत्वपूर्ण है। एक ऐसा राज्य जो नदियों और नेचुरल संसाधनों से भरपूर रहा। कभी यहाँ के कौटन(रुई) तो कभी यहाँ के स्टील ने इस राज्य को समृद्ध बनाने की कोशिश की। ये वहीं राज्य है जहाँ कभी “रोज़ा पर्कस” नाम की अश्वेत महिला ने एक श्वेत नागरिक को पब्लिक बस मे अपनी जगह देने से मना कर दिया था। उन दिनों बस या कई सार्वजनिक जगहों पर अश्वेत नागरिकों का जाना मना था या फिर श्वेत नागरिक को जगह ना मिलने पर अपनी जगह देनी पड़ती थी। रोज़ा ने इस नियम का उल्लंघन किया और परिणाम स्वरुप उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। यहीं से “सिविल राईट मूभमेंट” की नीव पड़ी।

रोज़ा की मदद को हज़ारों अश्वेत सड़क पर उतर आए। जिस “मोंटगमेरय” में ये घटना हुई वो आज अल्बमा की राजधानी है। यहाँ उस समय “मार्टिन लूथर किंग जूनियर” डेक्स्टर अवेन्यू के एक चर्च में धार्मिक उपदेश के लिए आए थे। पर रोज़ा के साथ हुए इस घटना से वो बहुत आहत हुए और उन्हें सिविल राइट मूवमेंट का अहवहान किया। यहीं से ये मूवमेंट पुरे अमेरिका में फैल गई और अंतत: अश्वेतों को उनका अधिकार मिला।

सिविल राईट का गढ़ होने के अलावा, इसी राज्य के “हनत्सविल्ल” नामक जगह पर पहला रोकेट बना जिसमें इंसान को बिठा कर चाँद पर भेजा जा सका। इसलिए इसे “रोकेट कैपिटल ओफ द world “ भी कहते हैं।

***इससे अलग बात करूँ सुरक्षा की तो  ये अमेरिका का सबसे असुरक्षित राज्यों में से एक है। इसका कारण कई लोग यहाँ अश्वेत लोगों की ज़्यादा संख्या भी बताते है। तथ्य क्या हैं मुझे इसकी जानकारी नही। मुझे ये जगह कहीं से भी असुरक्षित नही लगी पर हाँ ये बात ज़रूर थी कि, छुट्टी का दिन होते हुए भी यहाँ की सड़के सुनी थी। डाउनटउन शाम के सात बजे ही सुना पड़ा था। हमलोग आस-पास जो घुमने की जगहें थी वहाँ रुके कुछ तस्वीर निकाली और चलते बने।

मज़े की बात ये रही कि अल्बमा में हम दो रात रुके और दोंनो रात जिस होटेल में रुके उसका मालिक हिंदुस्तानी। एक के बारे में पहले लिख चुकीं हूँ( सरदार जी जिसका अटेंडेंट थे। जिनका बेटा सत्यार्थ की उम्र का था)  आज जो मिले वो गुजराती थे। आज का होटेल पिछले वाले से थोड़ा अच्छा था। इसमें ब्रेकफ़ास्ट का समान भी ज़्यादा था। हम जब रूम छोड़ने लगे तो गुजराती भाई ने पुछा सब ठीक तो था ना? कोई दिक्कत तो नही हुई। साथ हीं सत्यार्थ को कुछ मफ़िन और चोकलेट दिए। वैसे ये आप ख़ुद भी ले सकतें है ब्रेकफ़ास्ट एरिया से। पर हमने नास्ता कर हीं लिया था तो इसकी ज़रूरत नही लगी। अब प्रेम वश दिया हुआ कैसे मना करते। हालाँकि सत्यार्थ इनमे से कोई ठीक से नही खाता।

गाड़ी में बैठते हीं मेरे दिमाग़ में जैसे सवाल उमड़ा कि उससे पहले शतेश बोल पड़े, “ इनका हीं अच्छा है, किसी सस्ती जगह पर होटल ले लो। कुछ स्टाफ़ रख दो और अपनी नौकरी भी करतें रहो।”  दोनो होटल के मलिक यहाँ कही किसी कम्पनी मे काम करतें है, ये इनका दूसरा बिसजनेस है। अल्बमा की कोस्ट ओफ लिविंग सस्ती है पर बात वहीं कि यहाँ सुरक्षा कारणों से लोग रहना नही चाहतें। कुल मिला कर कहा जाए तो मुझे ये जगह सुनी, थोड़ी पुरानी पर अच्छी लगी।

Monday, 15 July 2019

खेल का अद्भुत इतवार !!!


खेल जगत का अद्भुत इतवार। एक ऐसा इतवार जिसने सुबह से शाम तक खेल और इसके जादू से बाँधे रखा। एक तरफ़ वर्ल्ड कप तो दूसरी तरफ़ विंबलडन। दोनो ज़बरदस्त खेल के बाद समझ नही आ रहा था कि क्या प्रतिक्रिया दिया जाए। दोनो खेलों ने कई बार दिल की धड़कने बढ़ा दी थी। किसी की जीत की थोड़ी ख़ुशी तो किसी के हार का थोड़ा गम लेकर हमलोग पहुँचे शाम को डर्बी देखने।

शाम की ख़ूबसूरत बेला, ढलता सूरज, ठंडी हवा। हवा में घुलती सिगरेट-सिगार और भाँति-भाँति के परफ़्यूम की ख़ुश्बू ठीक आज के मैच की तरह दिमाग़ पर असर डाल रहें थे। इससे निजात पाने के लिए हम आगे बढ़ते जा रहें थे। क़दमों की दूरी के साथ मन की भावनायें मिट्टी की सुगंध की ओर खींची चली जा रही थी। कुछ दूर आगे जाने पर ग्राउंड पर बिखरें ख़ूबसूरत लोग और उनके प्यारे बच्चों को देख हमने अपने पाँव और मन को वहीं रोक लिया। अब क्रिकेट-टेनिस भूल घुड़दाउल में नए जोश से शामिल हो गये। पर कहा ना इस बार ये इतवार कुछ अलग थी। आख़िर इसने विदा लेते-लेते मुझे संयम और हिम्मत का पाठ दुहराने को कहा। कहा जिसके पास ये दोनो हो, वो दुनियाँ जीत सकता है। ना जीत का घमंड करे ना हार का मातम। साथ हीं “सब होने के बावजूद प्रकृति को आपके साथ होना बहुत ज़रूरी है जो कि बाद में नियति बन जाती है।”

खेल की शुरुआत, ख़ूबसूरत चाँदनी रात और जगमगाती रौशनी में बारह घोड़े के साथ शुरू हुई। अपने सवार के साथ दौड़ में शामिल हुए घोड़े दौड़ना शुरू किए। दौड़ के शुरू में हीं “नम्बर सात घोड़े “ का सवार गिर पड़ा। चारों तरफ़ से ओह ! शीट , ओ गॉड ! जैसी आवाज़ें आने लगी। थोड़ी देर में लोग उस सवार को ठीक जान आगे के रेस का आनंद लेने लगे। तभी सबकी नज़र उस अकेले घोड़े पर गई जो सबसे आगे जा रहा था। ये वहीं नंबर 7 घोड़ा था, जो गिरने के बाद भी दौड़ में बना रहा बिना सवार( जॉकी)के। हर तरफ़ से ये देख अववववऽऽऽऽ  की आवाज़ आने लगी।

उसकी ठीक बग़ल से गुज़र रहा घुड़सवार, जो बिना उस घोड़े को देखे अब अपनी हार मानने को तैयार था। उसने सोचा एक बार देखूँ तो कौन है जो मुझसे आगे है। जैसी ही उसकी नज़र उस अकेले घोड़े पर गई, उसने अपने घोड़े को कहा अब हमें जीतना हीं होगा। आज का दिन तुम्हारा है। और इसी के साथ उसने एक चाबुक लगाई और उसका घोड़ा मालिक का अंदेशा पाते हीं सेकेंड के अंतर से जीत गया।

ठीक वैसे हीं , जैसे नंबर 7 अकेले भारत को जीत ना दिला पाए। ठीक वैसे हीं, जैसे सबसे लंबा फाइनल खेल रहे “जोकोविच और फेडरर”  के बीच कई बार हारते-हारते जोकोविच अपने संयम और हिम्मत से जीत गए। ठीक वैसे ही जैसे जीत इंग्लैंड की हुई पर दुनिया को न्यूज़ीलैंड का दर्द ज़्यादा चुभा। ठीक वैसे हीं जैसे बिना जॉकी के घोड़े ने रेस पूरी की। पर अगर वो एक सेकेंड से जीत भी जाता तो उसे हारा हीं माना जाता।

Sunday, 7 July 2019

कहीं ये वो तो नही !!!!

शब्दों के जाल और संगीत का नशा किसी को भी ठग सकता है। मुझे ऐसा लगता है कि, इनका अगर सही प्रयोग किया  जाए तो कोई अपना तन-मन-धन सब कुछ दाव पर लगा सकता है। ऐसा ना हो तो भला कोई कैसे लिख पाता

“होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा
ज़हर चुपके से दवा जान के खाया होगा”  और इन शब्दों में कैसे कोई डूब गया होगा ये सोच कर की 

बन्द कमरे में जो ख़त मेरे जलाए होंगे
एक इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा।

शब्द जो उभरे, अब उसकी आँखों से कुछ गरम आँसू बनकर कर टपक रहे हैं। मेज़ पर पसर रहे हैं।  वहीं मेज़ जहाँ कभी उसकी तस्वीर हुआ करती थी। भला हो उस काली लकड़ी के फ़्रेम का, जिसने उसे नज़रों के टोने से बचा रखा था। ये ना होता तो जाने क्या हीं होता......

इतने अरसे के बाद एक तस्वीर के सहारे इंतज़ार और मुश्किल जान पड़ती। इस तस्वीर में क़ैद दोनो की जान अब जाने को है। एक डर,  एक अनजान बेचैनी इस तस्वीर को पलट देती है। पर कम्बख़्त फ़्रेम  के पीछे लगा तिकोना सपोर्ट, मन को चूभ रहा है। चुभन इतनी बढ़ जाती है कि, तस्वीर सीधी आँखों के सामने फिर काली फ़्रेम में जड़ी मुस्कुराने लगती है।एक तरफ़ हँसती आँखे शीशे के पीछे से कह रही है

मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा....

दूसरी तरफ़ उन क़ैद आँखों की बोली सुनकर दूसरी क़ैद आँखे बरस पड़ती हैं। आज दूसरी बार ऐसी बरसात हो रही है। पर इस बार अंतिम विदा सी नमी है। काँपते हाथों से तस्वीर लेकर उसे सीने से लगाती है। अपने दिल की धड़कनों की तेज़ आहट पाकर आँखें फिर शब्दों के भ्रमित जाल में भिंगने लगती है

कहीं ये वो तो नही.....
ज़रा सी आहट होती है तो दिल सोचता है
कहीं ये वो तो नही....



Tuesday, 25 June 2019

टर्की रन पार्क !!!!

वैसे तो घुमना -फिरना हमारा बारहों महीना लगा रहता है पर, गरमी के दिनो में ये और भी बढ़ जाता है। उन्मे से सब के बारे में तो नही लिख पाती पर जो महत्वपूर्ण हैं या जो मुझे ज़्यादा पसंद आतें हैं उनकी सैर ज़रूर करा देती हूँ।

तो चलिए आज इंडीऐना का एक स्टेट पार्क जिसका नाम “टर्की रन स्टेट पार्क” है वहाँ लेकर चलती हूँ। इसके नाम के पीछे की कहानी तो किसी को ठीक से मालूम नही पर पार्क के इन्फ़र्मेशन सेंटर पर पता लगा कि शायद कभी यहाँ टर्की( एक तरह का पक्षी) यहाँ ख़ूब रहते होंगे। 2382 एकड़ में फैला ये पार्क पहाड़, पेड़-पौधों, छोटे-मोटे जंगली जानवर और पत्थरों का घर है। इसके बीच से एक नदी बहती है जिसका नाम शुगर क्रीक रिवर है। नदी का पानी तो वैसे हीं मीठा होता है पर इसके नाम के पीछे इसके मीठे पानी का योगदान कम इसके किनारे उगे मीठे मेपल ट्रीज़ का योगदान ज़्यादा है।

इस पार्क की ख़ूबसूरती में चार चाँद यहाँ के ट्रेल लगाते हैं। कुल ग्यारह अलग-अलग तरह के ट्रेल है। पथरीले ट्रेल को सुलभ बनाने की हर कोशिश की गई है फिर भी कुछ थोड़े मुश्किल भरे थे। ट्रेल 9 सबसे कठिन था और सत्यार्थ के साथ ये और मुश्किल होता तो इसे छोड़ हमने सारे ट्रेल किए। जब पैरों की हालत थोड़ी पतली होने लगी फिर घड़ी पर नज़र गई, हमारे क़दमों की गिनती सोलह हज़ार के पार पहुँच चुकी थी। हालाँकि ये क़दम नाप लगातार नही था, हम रुकते-रुकाते आगे बढ़ रहें थे। घर आने से पहले हमने साँझ की बेला में घोड़े की सवारी करनी चाही जो की पहाड़ों की सैर अपने ढंग से कराता पर सत्यार्थ की वजह से वो हो ना सका। हुआ यूँ कि, ये लास्ट टूर था और छः साल से छोटे बच्चें को उस पथरीले रास्ते पर घोड़े की सवारी माना थी। अब ऐसे में या तो मैं जाती या फिर शतेश। फिर तय हुआ कि छोड़ो फिर कभी ,अभी अब घर को निकलते हैं।

घर आने से पहले आपको बता दूँ कि यहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा ख़ूबसूरत है। वहीं मेरा पसंदीदा कंट्रीसाइड , छोटी सड़के, खेत-खलिहाल, जीव-जानवर और रास्ते में मिला एक क़ब्रिस्तान। हमें जाने वक़्त एक शव यात्रा भी मिली। हम क़ब्रिस्तान के थोड़ी हीं दूर थे। मैंने शतेश को बोला भी की चलो देखते है पर उधर मुड़ने का रास्ता कहीं दिख नही रहा था।  क़रीब बीस मिनट के बाद के मोड़ आया तब तक हुआ कि छोड़ो अब और हम पार्क पहुँच गए।

तो चलिए तस्वीरों के ज़रिए सैर पर निकलते हैं,

Monday, 24 June 2019

इंद्रधनुष और प्रेम का पुल !!!

तीसरी  मंज़िल  की खिड़की और पीछे हम दोनो। काँच के इस तरफ़ से चार आँखे नीचे की तरफ़ देख रहीं थी। एक की नज़र जहाँ कार पर थी वहीं दूसरे की नज़र उसके पास खड़े दो लोगों पर। दो ऐसे लोग जो विदा के इस पल को सह नही पा रहें थे। बार-बार एक दूसरे से गले मिल रहें थे, एक दूसरे को चूम रहे थे।

मैं उनके इस एकांत की अकेली गवाह नही थी। उनके साथ एक तीसरी महिला और पूरा परिवेश था , जो उनके विदा से दुखी हो रहा था। तभी तो कुछ पल के लिए बदली सी घिर आई थी। उनके इस विदा को देख मेरा मन भी दुखी हो रहा था, वह भी कह रहा था, “ ये जो भी हों अलग ना हो”

मेरी नज़रों के नीचे एक सोलह-सत्रह साल का लड़का खड़ा था, जो  किसी महिला को जाने से पहले विदा दे रहा था। महिला की पीठ मेरी तरफ़ थी। ऐसे में मैं समझ नही पा रही थी कि ये किस उम्र की होगी। शरीर से थोड़ी ज़्यादा, हल्के लाल छोटे-छोटे केश। काली जैकेट के साथ घुटने तक की नीली पैंट में लिपटी उस महिला को लड़का बार-बार गले लगा रहा था। उसके माथे को चूम रहा था। महिला भी प्रतिरूप अपना प्यार लूटा रही थी। कभी उसके बाज़ुओं को चूम तो कभी उसके गालों को। कभी दोंनो अपने आँखों के किनारे पोंछते। बार-बार लड़का गाड़ी तक जाता फिर आकर उसे गले लगा लेता। ऐसा देख मुझे लगा ये शायद लड़के की दादी या नानी होगी।

अंतत: एक दूसरी महिला जो लड़के की माँ जैसी लग रही थी, चलने का इशारा करती है। गाड़ी से निकल कर वो दूसरी महिला को गले लगा कर, ड्राइविंग सीट पर बैठ जाती है। लड़का भी गाड़ी में बैठ जाता पर जबतक उसकी माँ शायद अड्रेस लगा रही थी तबतक वो उतर कर उस महिला को फिर से गले लगता है। उसके सिर के साथ इस बार होंठों को भी चूमता है। महिला भी वैसा हीं करती है पर ये चुम्बन देखने में कुछ ऐसा लगा जैसे किसी ने फूलों को होंठों से छुआ हो।
इसके बाद मुझे लगा, हो सकता है ये उस लड़के की दोस्त हो, प्रेमिका हो। इतना दुःख अलग होने का ओह! जाने दोनो कौन थे ? उनके बीच जो भी रिश्ता हो, बड़ा हीं पवित्र लग रहा था। इस प्रेमपूर्ण वियोग की घड़ी में मैं भी बहे जा रही थी कि, सत्यार्थ बोल पड़ा पानी-पानी।

सत्यार्थ को पानी देकर मैं यहीं सोचने लगी कि यहाँ लोग प्यार को भी कितने प्यार से करतें हैं। अपनी प्रेमिका के बालों को ऐसे सहलाते हैं जैसे वो कोई रेशम हो। उसके हाथों को अपने हाथ में ऐसे लेते हैं जैसे किसी मासूम बच्चा के हाथ हों।उसके होंठों को ऐसे चूमतें हो जैसी उसकी आत्मा को चूम रहें हो।

शायद यहीं आत्मा का वियोग इतना बढ़ा गया था कि शाम को ख़ूब बारिश हुई और एक ऐसा इंद्रधनुष उगा जो मानो मेरे नीचे के माले से लेकर उस लड़के के पड़ाव तक जुड़ गया हो। मानो इस इंद्रधनुष ने संदेश दिया हो कि मैंने सारे रंगो के पुल बना दिया है तुम्हारे लिए अब सफ़र तुम ख़ुद तय करो।




Monday, 17 June 2019

प्यार की अनुमति !!!

बीते दिनों तीन ख़ूबसूरत मूवीज़ देखी। हामिद, नोटबूक और चौक एंड डस्टर। जिसमें  हामिद एक सचाई बयान करती, तो नोटबूक एक ख़ूबसूरत प्रेम कहानी। तीसरी फ़िल्म  चौक एंड डस्टर तो ज़रूर देखी जानी वाली फ़िल्म है। 
आज मैं नोटबूक के बारे में लिख रही हूँ कारण वही शाम की चाय और संगीत का नाता। तलत महमूद जी गा रहें थे,

प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी
*तू बता दे के तुझे प्यार करूँ या ना करूँ।

ठीक इसी तरह की अनुमति नोटबूक में सलमान खान की आवाज़ माँग रही थी,

मैं तारे तोड़ के लाऊं
मेरे इतने लम्बे हाथ नहीं
सबके जैसा हूँ मैं भी
कोई मुझमें अलग सी बात नहीं
हाँ मुझमें अलग सी बात नहीं 

दिल फिर भी चुप के से
ये पूछ रहा तुमसे
*तुम मुझसे ए प्यार करोगी क्या....

जब नोटबूक देख रही थी तब भी इस तरफ़ ध्यान गया था। साथ हीं संयोग कहिए या फिर कहिए “मनोज मुन्तशिर” ने “साहिर लुधियानवी” के बोल सुने होंगे और और इससे मिलता- जुलता कुछ करने की सोची होगी। आख़िर इस फ़िल्म की नायिका प्रनूतन , नूतन की पोती भी तो है। दिलचस्प बात ये की दोनो हीं गाने पानी के बीच सूट हुए हैं। 

इधर नूतन से तलत कहते है ,
मेरे ख़्वाबों के झरोखों को सजाने वाली
तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है के नहीं
पूछ कर अपनी निगाहों से बता दे मुझको
मेरी रातों के मुक़द्दर में सहर है के नहीं 
तो वही मनोज लिखते है, 
सपनों में मेरे अजनबी
धीरे से दाखिल हो कभी
गलियों गलियों तेरा किस्सा आम है
सपना ये सच कर पाऊं
मेरे ऐसे तो हालात नहीं

मतलब कुल मिला कर मुझे नोटबूक फ़िल्म तो अच्छी लगी पर इसके गाने और संगीत बार-बार मुझे दूसरे-दूसरे गानों से जोड़ रहें थे। अगर इस फ़िल्म के दूसरे गाने की बात करें तो,“नई लगदा” का पूरा संगीत ही सुना हुआ सा लगता है। साथ ही एक ही गीत में आपको  आरजीत सिंह+अदनान सामी+ आतिफ़ असलम सब की आवाज़ जैसा कुछ सुनने को मिलेगा, हालाँकि इनमे से किसी ने इस गीत को नही गया। 

संगीत से इतर ये फ़िल्म एक बार तो देखने लायक है। फ़िल्म के नायक, नायिका नए ज़रूर हैं पर कही से भी ये इनकी पहली फ़िल्म नही लगती। और सबसे अच्छा तो इसकी सिनेमेटोग्राफ़ी है। कश्मीर को इतना सुंदर दिखाया है कि क्या कहूँ। बीच-बीच में मन कर रहा था कि अगली ट्रिप काश कश्मीर की हो जाती।

नोट:-फ़िल्म को आए समय हो गया पर मैंने अभी देखी सत्यार्थ की मेहरबानी से। सिनेमाघर में गए ढाई साल हो गए हैं:)

Thursday, 6 June 2019

एल्विस प्रेस्ली !!!

जैसा की मैंने पिछले दिनों लिखा था कि, पेंसाकोला हमलोग रुकते-रुकाते जा रहें थे। यू एस स्पेस एण्ड रोकेट साइंस से निपटने के बाद हमलोग मिसीसिपी “टूपेलो” के लिए निकल पड़े। निकलने से पहले आपको बताती चलूँ कि यहाँ जाने का शतेश का मन नही था। प्रमुख कारण हमें थोड़ा अलग रूट लेना होता और इससे लगभग ढाई घंटे की दूरी बढ़ जाती। ख़ैर ना जाने के शतेश के कई बहाने पानी की तरह बह गए और हम निकल पड़े इस संगीतमय यात्रा पर।

ये जो जगह है यहाँ कभी गायक “एल्विस प्रेस्ली” का जन्म हुआ था। संगीत के राजा कहे जाने वाले प्रेस्ली को पहली बार मैंने आज से पाँच साल पहले सुना था। इनको सुनने के पीछे भी एक कहानी है। हुआ यूँ कि, आपको मेरी दोस्त डेजी तो याद होगी हीं। अरे हाँ वहीं -वहीं जिसकी चिट्ठी का ज़िक्र मैंने कुछ महीने पहले किया था। वहीं पोस्टकार्ड जिसपर एल्विस की तस्वीर छपी थी।
हाँ ,तो जब हमलोग प्रिंसटन में आमने-सामने रहते, हमारी ख़ूब दोस्ती हो गई थी। ऐसे में मैं कभी उसके घर तो वो कभी मेरे। एक शाम उसकी बेटी मुझे पिज़्ज़ा खाने को बुलाने आई। पाँच -छः क़दम की दूरी नाप कर मैं उसके घर में दाख़िल। पिज़्ज़ा बनने-बनने को था और स्पीकर पर एल्विस जी गा रहें थे,
“लव मी टेंडर, लव मी लोंग
टेक मी टू योर हार्ट, फ़ोर इट्स देर दैट आइ बिलोंग
एण्ड विल नेवर पार्ट”

मुझे बहुत अच्छा लगा ये गीत और डेज़ी से पूछ बैठी कि ये किसने गया है? उसने फिर इनके बारे में बताया और फिर घर आकर मैंने इस गाने को घिस दिया। बाद में कुछ और गाने सुने पर ये मन को ज़्यादा भाया। अरे नही -नही दो और इनके गाना अच्छे लगे। लिंक पोस्ट के कोम्मेंट में लगा होगा, सुनने की इक्षा होगी तो सुनिएगा नही तो क्या आगे बढ़िए ....

हाँ तो इनके बारे में ज़्यादा जानकारी आप गूगल बाबा से प्राप्त कर सकतें है, मैं आपको बस यात्रा और पड़ाव तक पहुँचा कर कुछ झलक दिखा दूँगी।

जैसा कि मुझे सिटी से ज़्यादा कंट्री साइड पसंद है तो मैं बाहर के नज़ारों में व्यस्त होती कि इससे पहले शतेश टोकते हैं, ये बताओ कि तुम इंडिया में कितने साल रही ? तुम्हारा पसंदीदा गायक कौन? उनका जन्म कहाँ? और तोप सवाल की तुम वहाँ गई हो क्या ?
इन सारे सवाल का जबाब उन्हें मालूम था फिर भी तोप सवाल से पहले भाव-भंगिमा तो बनानी पड़ती हैं ना।

मैंने कहा अब जब तुम मान ही गए हो चलने को फिर खामखां इतने सवाल। शतेश हँसते हुए बोले, नही मैं सच में जानना चाहता हूँ कि मोहम्मद रफ़ी का जन्म कहाँ हुआ है। अगली बार भारत गए तो तुम्हें वहाँ ले चलने की कोशिश करूँगा। मैं इतनी ख़ुश हुई इस बात से कि शतेश कि बाँहें चूम ली। पीछे बैठ कर बाँह तक हीं जा सकतें है।

इस तरह मैंने रफ़ी और किशोर कुमार के जन्मस्थल तो बताए पर मुकेश का मुझे मालूम ना था। तुरंत गूगल किया और मालूम चला कि अरे ये तो दिल्ली है।
फिर हमलोग के बात करने का टॉपिक सम्मान और किसी भी चीज़ को कैसे टूरिस्ट डेस्टिनेशन बनाया जाए पर भटक गया। बीच-बीच में खेतों की लाल मिट्टी मेरा ध्यान खिंच रही थी।

हम अपने पड़ाव तक पहुँच चुकें थे। सफ़ेद रंग के इनके घर को देखने का टिकेट था $8 अगर आप इसके साथ इनकी फ़िल्म और टूर लेना चाहतें है तो इसकी क़ीमत $27
 हमारे पास समय की कमी थी तो हमने घर का टूर हीं सिर्फ़ लिया और आस-पास घूमे। वैसे गाइड की ज़रूरत नही थी हर जगह सारी चीज़ें लिखीं हुई थी। घर में एक गाइड पहले से था जो दो कमरे के घर के बारे मे बता रहा था।

तो चलिए तस्वीरों के ज़रिए आप भी निकलिए सैर पर;


Monday, 3 June 2019

पेंसाकोला !!!!

जैसा की मैंने वोट काउंटिंग के दिन बताया था कि स्वामी का मन बड़ा प्रसन्न है, यात्रा हमारी सुखद होने वाली है और ऐसा ही हुआ। तीन दिन की छुट्टी थी। हमने “फ़्लॉरिडा के पेंसाकोला बीच “ जाने का प्लान किया। हमारे यहाँ से पेंसाकोला की दूरी 750 माइल है। इतनी दूरी गाड़ी से तय करने में कुछ साढ़े दस से ग्यारह घंटे लगते। हमने ने रुकते-रुकाते जाने का प्लान बनाया था।
 शुक्रवार की दोपहर से यात्रा प्रारम्भ हुई। बीच में एक -आध छोटे कोफ़ी -पानी ब्रेक के बाद, हमलोग छः घंटे की दूरी पर “हनट्सविल अलबमा” में रात को रुकें। हमने होटेल और आस-पास घूमने की जगह पहले से हीं बूक और तय करके रखा था।
नश्विल में रुक कर हमने खाना पैक करा लिया था। होटेल का गुजराती मालिक जबतक खाना पैक होता तबतक मोदी का गुणगान करने लगा। बिहार की राजनीति जाननी चाही और स्वामी शुरू हो गए। मैं इसी बीच सत्यार्थ को वाशरूम से लेकर आ गई। वार्ता अभी चल हीं रहा था, खाना आया नही था तो माँ-बेटा रेस्टरों के बाहर टहलने लगें। थोड़ी देर में खाना लेकर स्वामी प्रकट हुए और आगे की यात्रा प्रारम्भ हुई।

हनट्सविल होटेल पहुँच कर फ़्रेश हुए, खाना खाया और सो गए। हाँ एक और बात बतानी रह गई इस होटेल का मालिक एक इंडियन ही था। रेसेप्शन काउंटर पर एक गुजराती भाई था। अपने परिवार यानी एक बेटे और पत्नी के साथ होटेल के एक कमरे में हीं रहता था। हमें देख कर बड़ा ख़ुश हुआ। अपने बीबी-बच्चे से मिलाया। उसका बेटा सत्यार्थ से दो मन्थ हीं बड़ा था पर देखने में चार साल के बच्चे जैसा था। सत्यार्थ के बाल को देख साह भाई ने बताया कि दो दिन पहले हीं उन्होंने अपने बेटे का मुंडन किया था। घर पर हीं साह भाई ने बाल को सफ़ाचट कर दिया था। बड़ा हीं प्यारा बेटा था उनका। पर हम थके थे तो ज़्यादा समय उन्हें नही दे पाए।
 रूम में जाने से पहले हमने सत्यार्थ के लिए मिल्क माँगा ( अमूमन यहाँ के सभी होटेल में छोटे बच्चे के लिए मिल्क मिल जाता  है। कुछ जगहों पर आप पे करके ले सकतें है पर लगभग कई बार फ़्री हीं मिल जाता है) मिल्क के साथ वे सेब और ओटमिल का एक पैकेट लेते आए। साथ ही कोई ज़रूरत हो तो बताने को कहा।

होटेल का कमरा ठीक-ठाक ही था पर नल में दिक्कत थी। अभी वे हमारे कमरे के नल को ठीक हीं कर रहें थे कि, किसी दूसरे कमरे से स्मोक लाइट की प्रोब्लम आई। उनको आता हूँ कह कर साह भाई हमारे बाथरूम का नल ठीक करने लगे। साथ हीं अपनी व्यथा बताई की पूरे होटेल की ज़िम्मेदारी उनके ज़िम्मे हीं है। रेस्पशन से लेकर मेंटेंस तक। लोग रात को तीन-तीन बजे जगा देते हैं।

उनके जाने के बाद हमने थोड़ी देर उनके बारे में खाते हुए चर्चा की कि, यहाँ रहने के लिए लोग कई तरह के प्रयोग , तिडकम अपनाते हैं । उसमें भी ज़्यादा संख्या गुजराती, साउथ इंडियन और पंजाबियों की है। सोचिए होटेल के एक रूम में कैसे साह भाई अपने परिवार के साथ जीवन बिता रहें है।

सुबह जब हम नास्ते के लिए गए तो साह भाई की पत्नी ढोकला बना रही थी। होटेल के किचन का उपयोग वो अपने घर के काम के लिए भी करती थी। कारण रूम में तो गैस कनेक्शन है नही।फिर पता चला कि किसी इंडियन दुकान में वे ढोकला , थेपला और नमकीन बना कर देती है। पर हमें तो वही वेफल और ओट मिला। नास्ता के बाद हम निकल पड़े “यू एस स्पेस रोकेट साइन्स सेंटर”  होटेल से ये दस मिनट की दूरी पर था।

स्पेस रोकेट साइन्स सेंटर , अलबमा और नासा ह्यसटन के बारे में फिर कभी लिख कर तस्वीरें लगाऊँगी। आज की तस्वीर पेंसाकोला बीच की। जो यहाँ से चार घंटे की दूरी पर है। इस बीच हमलोग एक और जगह गये जो अगले पोस्ट में दिखेगा। फ़िलहाल  आज आपलोग समुन्दर तट की सैर करें ,काहे की गरमी बहुत है:)
तस्वीरें देखें आगे मैं यहाँ के बारे और लिखूँगी।

Wednesday, 29 May 2019

बुद्ध पूर्णिमा का चाँद !!!

एक अकेला चाँद शीशे की खिड़की से झाँक रहा है। बार-बार शीशे के ऊपर बने फ़्रेम में जड़ा उसे देख मुँह फेर लेतीं हूँ पर वो ढीठ ऐसा कि आगे हीं नही बढ़ता। किसी आस के पंक्षी सा मेरी तरफ़ ताके जा रहा है ताके जा रहा है...
मैं कोई चकोर नही फिर भी उसकी इस अदा से प्यार से भर उठी हूँ। ख़ुद को उठाया और बालकनी में निकल पड़ी। थोड़ी देर उसे वैसे हीं घूरती रही जैसे वो मुझे घूर रहा है। इस क्रम में दो अकेले ठहरे हुए ग्रह आपस में मौन वार्तालाप करने लगे.....

मुझे यूँ ताकता देख चाँद और चमक उठा। मेरी आँखों में उसकी चमक खेल रही थी और  इन आँखों की चमक का जादू उसे बाँधे हुए था। दोंनो एक दूसरे को रोके हुए थे कुछ ऐसे जैसे होंठों पर एक गीत बहने लगी,
अभी ना जाओ छोड़ कर की दिल अभी भरा नही....

एक पल को बादलों के पीछे हल्का सा छिप कर मुझे देखने लगा मानो जाँच रहा हो मेरे मन को, मेरे धैर्य को। मेरे धैर्य की परीक्षा के पहले हीं उसको अपने अकेलेपन से डर लगने लगा। नीले -काले बादलों की ओट से बाहर निकल चमक  उठा...
मुझसे बोला, मेरी चाँद ! जाने क्यों मैं अकेला यूँ हीं सदियों से भटक रहा हूँ?  जाने क्यों लोग मुझे यूँ दूर से ख़्यालों से ही प्रेम देते है?
कभी साथी रहे असंख्य तारे भी साथ नही मेरे ....
सुनो, क्या तुम जाने से पहले मेरी एक याद साथ रख पाओगी? जाने कब अब मैं तुम्हारी खिड़की पर आऊँगा? कब तुम्हें पुकारूँगा ? और कब तुम मेरी पुकार सुन आ जाओगी...
तबतक तक मुझ अकेले चाँद को इस ब्रहमाँड के फेरे ऐसे हीं लेते रहने होंगे जैसे, “एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में आब-ओ -दाना ढूँढता है ,आशियाना ढूँढता है.”
चाँद को जाते देख, यादों के नाम मैं किसी अनाम से लिखे ख़त सा उसे अपने फ़ोन में क़ैद कर लेती हूँ। चाँद सुनो, तुम्हें अकेला जाते देख मन बेचैन सा है थोड़ा दुखी सा है मानो जैसे इसी पल के लिए किसी मासूम रजा के भाव यूँ उभरे जैसे मेरे हो,

चाँद अकेला जाए सखी री
काहे अकेला जाए सखी री
मन मोरा घबराए री
सखी री , सखी री ओ सखी री ....

जाओ चाँद दुखी ना हो वियोग से। यात्रा तुम्हारी नियति है पर इस बार तुम क़ैद हो किसी के मन में। एक ऐसी क़ैद जो प्रेमपूर्ण आज़ाद है....
तुम फिर आना मेरी खिड़की पर। हम फिर मौनपूर्ण बातें करेंगे और हाँ,
अब तुम अकेले होकर भी अकेले नही रहे ....